आवी गई? तो कहे छे के ना, ए तो मारा ज्ञाननुं निमित्त छे; ए मने द्वेषनुं निमित्त
नथी पण ज्ञाननुं ज निमित्त छे. ए ज रीते अनुकूळ संयोग आवे त्यां पण ज्ञानी तो
निजभावथी ज्ञानरूप ज परिणमतो थको तेने ज्ञाननुं ज निमित्त बनावे छे. ज्ञानी
ज्ञानरूपपणाने छोडीने अन्यभावरूपे परिणमतो ज नथी. ज्ञान पोते कोई संयोगरूपे
परिणमतुं नथी ने संयोगने पोतारूपे परिणमावतुं नथी. आवुं ज्ञान ते निजस्वरूप छे.
ज्ञेयो ज्ञानमां जणाय ते तो ज्ञानना विकासनी प्रसिद्धि करे छे. विकसता ज्ञानमां
प्रतिभासता ज्ञेयो कांई रागद्वेषनुं कारण थता नथी.
ज्ञान शरीरने जाणे त्यां ज्ञान ज्ञानरूप परिणमे छे, शरीर शरीररूप परिणमे
ज्ञानमां घूसी जतां नथी. दूरना पदार्थ हो के नजीकना हो, ज्ञान तो बंनेथी जुदुं ने
जुदुं रहीने ज जाणे छे. अहा, ज्ञाननो स्वभाव शुं छे–ते जाणे तो केटली शान्ति!
ज्ञानमां परनी कांई घालमेल नथी. आत्मा जेना रूपे परिणमतो नथी तेनाथी
आत्माने लाभ के नुकशान केम थाय? आत्मा परने जाणतां कांई ते पदार्थने
पोतामां लावतो नथी. ज्ञान ज्ञान ज छे–ए निश्चय छे, ज्ञान परने जाणे छे–एवो
पर साथेनो संबंध ते व्यवहार छे. व्यवहारमां पण आत्मा ज्ञाता ने परचीज ज्ञेय–
एटलो ज्ञाताज्ञेयपणानो ज संबंध छे, एथी विशेष कांई संबंध नथी. ज्ञाननो
स्वभाव तो जाणवानो ज छे, एटले ते छूटी शके नहि. जाणनारी पर्याय पोतामां
रहे छे, परमां जती नथी. जाणनार जाणनार स्वरूपे ज रहे तो तेने सुख–दुःख शुं?
राग–द्वेष शुं? ज्ञेयपणे बधा सरखा छे, तेमां आनाथी हुं सुखी के आनाथी हुं दुःखी
–एवा बे भाग नथी; ने ज्ञानमां य एवो स्वभाव नथी के पदार्थने जाणतां तेनाथी
राजी के नाराज थाय. आवा ज्ञानस्वभावने स्वीकारवो ते प्रथम सत्नो स्वीकार छे.
आत्मा ज्ञानथी भरेलो छे, तेमांथी प्रवाह आवे छे. मारी अवस्थामां मोक्षदशा
स्वभावमां भरेलुं छे–एम धर्मीजीव अंतरद्रष्टिथी स्वभाव सामर्थ्यने अनुभवे छे.
आवा स्वभावनी प्रतीत वगर मोक्षनो पुरुषार्थ उपडे नहि.