Atmadharma magazine - Ank 253
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : : १७ :
अज्ञानी ज्ञान अने ज्ञेयनी भेळसेळ करे छे
आत्मा एटले सर्वज्ञस्वभावी परमात्मा; ज्ञानभावमां तन्मय थईने
परिणमती वस्तुने ज परमार्थ–आत्मा कहीए छीए; रागने आत्मा कहेता नथी.
आवा आत्माने प्रतीतमां स्वानुभवमां लीधा वगर ज्ञानपर्यायमां निश्चय शुं ने
व्यवहार शुं तेनी खबर पडे नहि. भिन्न ज्ञाननी जेने खबर नथी ते ज्ञान–ज्ञेयनी
एकबीजामां कोई ने कोई प्रकारे भेळसेळ करी नांखे छे. तेने अहीं समजावे छे के
भाई, ज्ञान ज्ञानमां, ने ज्ञेय ज्ञेयमां, बंने भिन्न–भिन्न पोतपोतामां ज वर्ती रह्या
छे, एकबीजाने कांई लागतुं–वळगतुं नथी. ज्ञेयोमां कांई छेदाय–भेदाय तेथी ज्ञान
कांई छेदातुं–भेदातुं नथी. चैतन्यवस्तुनो दरबार कोई अनोखो छे,–जेमां कोई
परज्ञेयनो प्रवेश नहि छतां बधाय ज्ञेयो जणाय. ज्ञाननी सीमा तूटे नहि छतां ज्ञेय
तेमां जणाय एवो व्यवहार छे. ज्ञाता पोते ज्ञानमय ज परिणमे छे–ते निश्चय छे,
तेमां कोई बीजानी अपेक्षा नथी. –आम ज्ञाननी जेम श्रद्धा–चारित्र वगेरे गुणोमां
निश्चय–व्यवहार यथायोग्य समजवा.
चैतन्यशक्तिनुं ध्यान तृप्ति उपजावे छ
तत्त्वानुशासन १९२मी गाथामां कहे छे के: अरिहंत अने सिद्धनुं ध्यान करवुं.
त्यां प्रश्न ऊठयो छे के अरिहंतपद के सिद्धपद अत्यारे तो आत्मामां नथी, तो तेनुं ध्यान
करवुं ए तो जूठ–मूठ फोगट छे! त्यारे तेनुं समाधान करतां कहे छे के हे भाई! थोडा
समय पछी आत्मामां जे अरिहंतपद अने सिद्धपद प्रगटवाना छे ते पर्यायो साथे आ
आत्मद्रव्य अत्यारे संकळायेलुं छे, आत्मामां ते पर्यायो प्रगटवानी ताकात भरी छे;
सर्वज्ञस्वभाव अत्यारे अंदर शक्तिपणे भरेलो छे, तेनुं ध्यान करतां तृप्ति–शांति ने
निराकुळ आनंद अत्यारे अनुभवाय छे. जो असत् होय तो तेना ध्यानथी शांति केम
थाय? जेम कोईने तरस लागी होय ने मृगजळमां ‘आ पाणी छे’ एवी असत्
कल्पनाथी पाणीनुं ध्यान करे तेथी कांई तेनी तरस मटे नहि, परंतु अहीं तो अमने
अर्हंत अने सिद्धपदना ध्यानथी आत्मस्वभावमां सन्मुखता थाय छे ने चैतन्यना
अमृतपानथी अशांति मटीने शांति थती प्रत्यक्ष वेदाय छे, माटे ते ध्यान असत् नथी
पण सत् छे, सत्–स्वभावमां जे सामर्थ्य पड्युं छे तेनुं ध्यान जरूर तृप्ति उपजावे छे.
अरे, आखुं स्वभावसामर्थ्य वर्तमान विद्यमान भर्युं छे, तेने अंतरमां देखे तो मार्ग
खूली जाय ने बधा समाधान थई जाय.