: कारतक : : १९ :
* हे जीव! तारे जिनरंजन करवुं छे? के जनरंजन?
जिनेन्द्रभगवाने कहेलो जे वीतरागी सम्यक्मार्ग तेने ओळखीने
जेणे शुद्धद्रष्टि प्रगट करी तेणे खरुं जिनरंजन कर्युं, तेणे भगवानने
प्रसन्न कर्या, ते अल्पकाळे मोक्षने साधशे. अने जे जीव लोकरंजन
करवा रागथी धर्म मनावीने विपरीततत्त्वनी प्ररुपणा करे छे ते
भगवानना मार्गनो द्रोही छे ने ते दुर्गतिमां पडे छे.....हे भाई,
पहेलां साचो मार्ग समजीने सम्यग्ज्ञान प्रगट कर. अहो,
भव्यजीवनी साची आंख तो सम्यग्ज्ञान छे.
(श्री तारणस्वामी रचित श्रावकाचार
उपरना प्रवचनोमांथी: आसोमास)
श्रावकना आचार अथवा श्रावकना धर्म तेमां सौथी प्रथम आचार सम्यग्दर्शन
छे. दर्शनआचार पूर्वक ज चारित्रआचार होय छे. ते सम्यग्दर्शन शुं छे तेनी आ वात
छे. साततत्त्वो के छ द्रव्यो तेमां शुद्ध जीवने देखवो ते शुद्ध दर्शन छे; आवा शुद्ध
सम्यग्दर्शन सहित ज श्रावकधर्म होय छे. सम्यग्दर्शनने अवलंबन कोनुं? शुद्ध आत्मा ज
तेनुं अवलंबन छे. आत्मानो स्वभाव राग वगरनो छे, अजीवथी भिन्न छे; रागनुं के
अजीवनुं अवलंबन ते सम्यक्त्वनुं साधन नथी. परालंबी श्रद्धा ते व्यवहारश्रद्धा छे,
निश्चयश्रद्धामां परावलंबन नथी, ए तो स्वाश्रितभाव छे.
एक विकल्पनुं पण जेमां कर्तृत्व नथी–एवुं शुद्ध आत्मद्रव्य, तेना निर्विकल्प
अनुभवथी जेणे निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट कर्युं तेनी ज नवतत्त्वनी, छ द्रव्यनी के
देवगुरुशास्त्रनी श्रद्धाने व्यवहार सम्यग्दर्शन कहेवाय छे.
श्री तारणस्वामी कहे छे के अरे! लोकरंजन करवा जे विपरीत तत्त्वनी प्ररुपणा
भान नथी ने रागना पोषणनो उपदेश देवामां तत्पर छे तेवा जीवो जनरंजन करे छे पण