Atmadharma magazine - Ank 253
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: २० : : कारतक :
जिनरंजनमां नथी वर्तता. जिनरंजन एटले जिनेन्द्रभगवाननी उपासना;
जिनेन्द्रभगवाने कहेलो जे वीतरागी सम्यक्मार्ग तेने ओळखीने जेणे शुद्धद्रष्टि प्रगट
करी तेणे खरुं जिनरंजन कर्युं, तेणे भगवानने प्रसन्न कर्या. मूढजीवो भगवानना
मार्गने भूलीने रागथी धर्म मनावता थका, लोकरंजन करवामां वर्तता थका पोताना
आत्मानुं ज अहित करे छे.
भाई, पहेलां साचो मार्ग तो समज. ऊंधा मार्गना कहेनारानो विश्वास करीश
मा. जे विपरीत मार्ग कहेनारा पाखंडी जीवोनो विश्वास करीने ऊंधा मार्गने सेवे छे ते
जिनमार्गनो द्रोही छे, ते दुर्बुद्धि छे. सद्बुद्धि तो तेने कहेवाय के जे सम्यक् मार्गने जाणे
ने सम्यक् मार्गनुं ज प्रतिपादन करे. अहीं तो कहे छे के हे मुमुक्षु! ज्यां ऊंधा तत्त्वनी
प्ररुपणा चालती होय, ज्यां पाखंडी पोषाता होय एवा कुसंगना स्थानमां तुं जईश
नहि; तेने अनुमोदन दईश नहि. रागना अवलंबनथी के व्यवहारना आश्रयथी धर्म
थाय–एवुं प्रतिपादन करनारा जीवो जिनमार्गना द्रोही छे, धर्मना द्रोही छे. भाई,
जिनदेवे तो वीतरागभावने ज धर्म कह्यो छे. आवा धर्मनी तुं परीक्षा कर. अने आवा
जिनधर्मनो साचो उपदेश क््यां मळे छे ने तेनाथी विपरीत प्ररुपणा क््यां चाले छे ते
परीक्षा करीने ओळखजे. ते ओळखीने, ज्यां विपरीतमान्यतानुं पोषण चालतुं होय–
एवा जनोनो संग तुं छोडी देजे.
शुद्ध ज्ञानप्रकाशक एवो आत्मा, तेनी निर्विकल्प शांतिनुं वेदन करवुं, तेमां शुद्ध
ज्ञानवडे जे शुद्धआत्मा झळके छे, ते ज तारणहार तीर्थ छे. सम्मेदशिखर वगेरे क्षेत्र ते
व्यवहारथी तीर्थ छे, तेनी यात्रा–पूजा–भक्तिमां शुभभाव छे.–एवी यात्रा वगेरेनो
व्यवहार धर्मीनेय होय छे, तेनो कांई निषेध नथी. पण तेनी मर्यादा केटली? के
शुभराग अने पुण्य बंधाय तेटली तेनी मर्यादा छे. भवथी तरवानुं ने मोक्ष पामवानुं
साधन तो ज्ञानने ज्ञानमां जोडवुं ते ज छे; ने ते ज खरुं प्रयोजन छे. ज्ञान अंतर्मुख
थईने आत्मस्वभावमां जोडाय त्यां ज्ञाननी वृद्धि थती जाय छे, ते वधतां वधतां
केवळज्ञानने अने मोक्षने साधे छे.
ज्ञाननुं प्रयोजन ए छे के केवळज्ञानने साधे. आवुं सम्यक्ज्ञान ते ज साची
आंख छे. अहो, भव्यजीवनी साची आंख सम्यग्ज्ञान छे. ए सम्यग्ज्ञान वगरना जीवो
तो अंध जेवा ज छे, तेओ मोक्षमार्गने देखता नथी. स्वानुभवथी ज्ञानीने
सम्यग्ज्ञानरूपी