Atmadharma magazine - Ank 253
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : : २९ :
भेदज्ञान वडे
मोहवश उपयोगने परद्रव्यमां ज भमावी भमावीने राग–द्वेषथी सदाय
व्याकुळ वर्ततो जीव संसारमां एक क्षण पण शांतभावने आस्वादतो नथी. जो
भेदज्ञान करीने परथी भिन्न स्वद्रव्यने देखे तो राग–द्वेषथी छूटीने तेनुं ज्ञान
परम उपशमने पामे, ने चैतन्यना कोई अचिंत्य शांतभावनुं वेदन थाय.
आवा उपशमनी प्राप्तिनो उपाय बतावतां भगवंत आचार्यो कहे छे के भाई,
तुं तो ज्ञान छो...तारा ज्ञानसूर्यमांथी तो जाणवाना किरणो छूटे छे,
ज्ञानसूर्यमांथी कांई राग–द्वेषना किरणो नथी फूटता. अने परद्रव्य पण कांई
तारा ज्ञानमां रागद्वेष करावतुं नथी. तुं तारा ज्ञानने ज्ञानपणे ज राख ने
राग–द्वेष न थवा दे, तो जगतमां कोईनी ताकात नथी के तने राग–द्वेष करावे.
स्वाधीन ज्ञानने जगतनी कोई वस्तु ललचावी शके नहि के डगावी शके नहि.
रागद्वेष करवा ते ज्ञाननुं कार्य नथी, ज्ञाननुं कार्य तो उपशांत भावरूप रहेवानुं
छे. आम भिन्न ज्ञानना अनुभवथी ज्ञानीने वीतरागभावरूप उपशमनी
प्राप्ति थाय छे. वाह! जुओ...आ पोन्नूरहील उपरथी कुंदकुंदाचार्यदेवे आपेलो
वीतराग सन्देश!
(आसो वद चोथ समयसार: सर्वविशुद्धज्ञान–अधिकार परना प्रवचनोमांथी)
* * *
आ जगतमां एवी वस्तुस्थिति प्रसिद्ध छे के जीवना गुण–पर्यायो जीवमां, ने
अजीवना गुण–पर्यायो अजीवमां; कोई द्रव्यना गुण–पर्यायने अन्यद्रव्य जरा पण
उपजावी शकतुं नथी. आ रीते कोई द्रव्यने बीजा द्रव्य साथे जरा पण संबंध नथी.
हवे, आ ज्ञानस्वरूप आत्मा छे, ते ज्ञानपर्याय वडे परनो पण जाणनार छे; पण
तेथी कांई पर द्रव्य तेने राग के द्वेष उपजावतुं नथी. जगतमां अचेतन पुद्गलो विविध
वचनो रूपे परिणमे त्यां ते वचनो कांई जीवना उपयोगने पराणे पोताना तरफ खेंचता
नथी; जीव ज स्वरूपमांथी डगीने ज्ञाननी साथे रागद्वेष करे छे, अने आ जीवे आवा
वचनोथी मारी निंदा करी अगर आ जीवे आवा वचनोथी मारी स्तुति करी–एवी
मिथ्याबुद्धि वडे अज्ञानी राग–द्वेषरूप परिणमे छे. अरे भाई, तारा उपयोगने तुं
उपशमभावमां राख,