भेदज्ञान करीने परथी भिन्न स्वद्रव्यने देखे तो राग–द्वेषथी छूटीने तेनुं ज्ञान
परम उपशमने पामे, ने चैतन्यना कोई अचिंत्य शांतभावनुं वेदन थाय.
आवा उपशमनी प्राप्तिनो उपाय बतावतां भगवंत आचार्यो कहे छे के भाई,
तुं तो ज्ञान छो...तारा ज्ञानसूर्यमांथी तो जाणवाना किरणो छूटे छे,
ज्ञानसूर्यमांथी कांई राग–द्वेषना किरणो नथी फूटता. अने परद्रव्य पण कांई
तारा ज्ञानमां रागद्वेष करावतुं नथी. तुं तारा ज्ञानने ज्ञानपणे ज राख ने
राग–द्वेष न थवा दे, तो जगतमां कोईनी ताकात नथी के तने राग–द्वेष करावे.
स्वाधीन ज्ञानने जगतनी कोई वस्तु ललचावी शके नहि के डगावी शके नहि.
छे. आम भिन्न ज्ञानना अनुभवथी ज्ञानीने वीतरागभावरूप उपशमनी
प्राप्ति थाय छे. वाह! जुओ...आ पोन्नूरहील उपरथी कुंदकुंदाचार्यदेवे आपेलो
वीतराग सन्देश!
उपजावी शकतुं नथी. आ रीते कोई द्रव्यने बीजा द्रव्य साथे जरा पण संबंध नथी.
वचनो रूपे परिणमे त्यां ते वचनो कांई जीवना उपयोगने पराणे पोताना तरफ खेंचता
नथी; जीव ज स्वरूपमांथी डगीने ज्ञाननी साथे रागद्वेष करे छे, अने आ जीवे आवा
वचनोथी मारी निंदा करी अगर आ जीवे आवा वचनोथी मारी स्तुति करी–एवी
मिथ्याबुद्धि वडे अज्ञानी राग–द्वेषरूप परिणमे छे. अरे भाई, तारा उपयोगने तुं
उपशमभावमां राख,