: ३० : : कारतक :
ने राग–द्वेषमां न जोड, तो कांई ते शब्दो तने नथी कहेता के तुं अमारी सामे जो....ने तुं
अमारा उपर रागद्वेष कर.
वळी, तुं बीजा सामे राग–द्वेष करे छे के आणे मारी स्तुति के निंदा करी.
परंतु सामो जीव कांई ते स्तुति के निंदाना शब्दोनो कर्ता नथी. सामा जीवे तो
पोतामां ज राग–द्वेष कर्या पण शब्दोमां के तारामां तेणे कांई कर्युं नथी. निंदा–
प्रशंसाना भाव करनारो सामो जीव कांई तारा आत्मामां प्रवेशी नथी गयो, के तने
ते रागद्वेष करावे.
जगतमां जे पुद्गलो निंदाना के स्तुतिना शब्दो रूपे परिणम्या तेने तो कांई
खबर पण नथी के अमे आ जीवनी स्तुति के निंदा करीए. ए तो बिचारा स्वंय जड
भावे पोतानी पर्यायमां परिणमी रह्या छे; ते शब्दो कांई तारा आत्मामां प्रवेशता नथी
तो तेणे तारामां शुं कर्युं? शा माटे तुं कोई उपर राग–द्वेष करे छे? भाई, तुं तो ज्ञाता
छो....परद्रव्यने जाणवानो तारो स्वभाव छे, पण तेमां राग–द्वेष करीने रोकावानो तारो
स्वभाव नथी.
तुं चैतन्यसूर्य छो, तारा चैतन्यसूर्यमांथी जाणवाना किरणो छूटे छे, पण
चैतन्यसूर्यमांथी कांई रागद्वेषना किरणो नथी फूटता.
अरे जीव! जगतमां एक्केय पदार्थ एवो नथी के जे तने रागद्वेष करावे.
कडवा झेर जेवा शब्दो आवे के घोर निंदाना शब्दो आवे, पण ते तो अचेतन
पुद्गलनुं परिणमन छे; ते तारी पासे तो ज्ञेयपणे ज आव्या छे ने ते पण कांई
पराणे तारा उपयोगने पोता तरफ खेंचता नथी. ए ज रीते प्रशंसाना के
अभिनंदनना शब्दो आवे तो ते पण अचेतन परमाणुनुं परिणमन छे, ते शब्दो
कांई तने राग करवानुं कहेता नथी. तारा अस्तित्वमां शब्दोनो प्रवेश ज नथी;
पछी ते तने शुं करे?
अहा, जगतथी भिन्न ज्ञानतत्त्व, एने जगतनो कोई पदार्थ रागद्वेष न
करावे अने जीवनुं ज्ञान पण कांई पर द्रव्यमां जतुं नथी. आवी भिन्नता जाणे त्यां
उपशमभाव थया विना रहे नहि. हुं मारा ज्ञानने ज्ञानपणे ज राखुं ने रागद्वेषरूप
न थवा दउं तो जगतमां कोईनी ताकात नथी के ज्ञानने रागद्वेष करावे. जगतनो
कोई अनुकूळ विषय ज्ञानने ललचावी न शके, के जगतनो कोई प्रतिकूळ विषय
ज्ञानने डगावी न शके. स्वाधीन ज्ञान वीतरागी उपशमरूप रहेनारूं छे, रागद्वेष
करनारूं नथी.
लोको शब्दने ‘बाण’ कहे छे, शब्दबाणथी हृदय वींधाई जाय एम कहे छे; पण