Atmadharma magazine - Ank 253
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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(बे भाई वच्चेनी वातचीत: अकलंक–निकलंक नाटकमांथी)
(एक भाई स्वाध्याय करी रह्या छे त्यां बीजो भाई आवीने नमस्कार करे छे;)
नमस्ते मोटाभाई! आप शेनी स्वाध्याय करो छो?
बंधु! हुं ‘परमात्मप्रकाश’ नी स्वाध्याय करुं छुं.
वाह! परमात्मानुं स्वरूप समजवा माटे अने भेदज्ञाननी भावना माटे आ बहु
ज सुंदर शास्त्र छे. भाई, मने पण एमांथी कंईक संभळावो.
सांभळ! आ शास्त्रमां छेल्ले आखा शास्त्रना साररूप आवी भावना करवानुं
कह्युं छे–
‘‘सहज शुद्ध ज्ञानानंदैकस्वभावोऽहं, निर्विकल्पोऽहं, उदासीनोऽहं,
निजनिरंजन शुद्धात्मसम्यक्श्रद्धान–ज्ञान–अनुष्ठानरुप निश्चयरत्नत्रयात्मक
निर्विकल्पसमाधिसंजात वीतराग–सहजान दरुप सुखानुभूतिमात्रलक्षणेन
स्वसंवेदनज्ञानेन स्वसंवेद्यो गम्यः प्राप्यो भरितावस्थोऽहं; रागद्वेषमोहादि....सर्वे
विभावपरिणामरहित शून्योऽहं, जगत्त्रये कालत्रयेपि मनोवचनकायैः
कृतकारितानुमतेश्च शुद्धनिश्चयनयेन; तथा सर्वेपि जीवाः, इति भावना निरंतर
कर्तव्येति’’
‘हुं सहज शुद्ध ज्ञानानंद एक स्वभाव छुं, हुं निर्विकल्प छुं, हुं उदासीन छुं;
निजनिरंजन शुद्धात्माना सम्यक् श्रद्धान–ज्ञान–अनुष्ठानरूप निश्चयरत्नत्रयात्मक एवी जे
निर्विकल्प समाधि, तेनाथी उत्पन्न वीतराग सहजानंदरूप जे सुख, तेनी अनुभूतिमात्र
जेनुं लक्षण छे एवा स्वसंवेदनज्ञानथी स्वसंवेद्य–गम्य–प्राप्य–भरितावस्थ छुं; रागद्वेष–
मोहादि....सर्व विभाव परिणामथी रहित–शून्य छुं; त्रण लोकमां तेमज त्रणे काळमां,
मनथी–वचनथी–कायाथी, कृत–कारित–अनुमोदनाथी शुद्धनिश्चयनये हुं आवो ज छुं, तथा
सर्वे जीवो पण एवा ज छे–एम निरंतर भावना कर्तव्य छे.’’
नानाभाई: अहो, आवी परमात्मभावनामां लीन संतोने केटलो आनंद
आवतो हशे?
मोटाभाई: अहा, एनी शी वात! ज्यां सम्यग्दर्शननो आनंद पण सिद्ध
भगवान जेवो अपूर्व छे, जेने आत्मा सिवाय बीजा कोईनी उपमा लागु पडी शकती
नथी, तो मुनिदशाना आनंदनी शी वात?
भाई! बलिहारी छे आपणा जैनधर्मनी–के जेना सेवनथी आवा अपूर्व
आनंदनी प्राप्ति थाय छे.
बंधु! वातो तो एम ज छे. खरेखर जैनशासन एक ज आ जगतना जीवोने
शरणभूत छे.