ने आ दुष्ट परिणाम छोड. मुनिराजना मधुर वचनो सांभळतां ज सिंहने पूर्वभवोनुं
ज्ञान थयुं, अश्रुधारा टपकवा लागी...परिणाम विशुद्ध थया...त्यारे मुनिराजे जोयुं के आ
सिंहना परिणाम शांत थया छे ने ते मारा तरफ आतुरताथी देखी रह्यो छे, तेथी
अत्यारे जरूर ते सम्यक्त्व ग्रहण करशे.
भीलथी मांडीने तेना अनेक
भवो बतावीने कह्युं के हे
शार्दूल! हवेना दशमा भवे तुं
भरतक्षेत्रनो तीर्थंकर थशे,
श्रीमुखथी अमे सांभळ्युं छे.
माटे
आत्महितकारी एवा
सम्यक्मार्गमां प्रवृत्त था.
रौद्ररसने बदले तुरत ज शांतरस प्रगट कर्यो ने ते सम्यक्त्व पाम्यो...एटलुं ज नहि,
तेणे निराहारव्रत अंगीकार कर्युं. अहा, सिंहनी शूर–वीरता सफळ थई. शास्त्राकार कहे
छे के ए वखत वैराग्यथी तेणे एवुं घोर पराक्रम प्रगट कर्युं के, जो तिर्यंचगतिमां मोक्ष
होत तो जरूर ते मोक्ष पाम्यो होत! ते सिंहपर्यायमां समाधिमरण करीने सिंहकेतु
नामनो देव थयो.
गयो. त्यांथी साकेतपुरी (अयोध्या)मां हरिसेन राजा थयो ने पछी संयमी थईने
स्वर्गमां गयो. त्यांथी धातकीखंडमां पूर्वविदेहनी पुंडरीकिणीनगरीमां प्रियमित्र नामनो
चक्रवर्ती राजा थयो; क्षेमंकर तीर्थंकर समीप दीक्षा लीधी ने सहस्रार स्वर्गमां सूर्यप्रभदेव
थयो. त्यांथी जंबुद्वीपना छत्रपुरनगरमां नंदराजा थयो, ने दीक्षा लई, उत्तम संयम
पाळी, ११ अंगनुं ज्ञान प्राप्त करी, दर्शनशुद्धि वगेरे १६ भावना वडे तीर्थंकरनामकर्म