पुष्पोत्तरविमानमां ईन्द्र थयो.
प्रियकारिणीमाताना ए वर्द्धमानपुत्रे चैत्र सुद तेरसे आ भरतभूमिने पावन करी.
ए वीर वर्द्धमान बालतीर्थंकरने देखतां ज संजय ने विजय नामना मुनिओनो
संदेह दूर थयो तेथी प्रसन्नताथी तेओए ‘सन्मतिनाथ’ नाम आप्युं. संगम
नामना देवे भयंकर सर्पनुं रूप धारण करीने ए बाळकनी निर्भयतानी ने वीरतानी
परीक्षा करीने भक्तिथी ‘महावीर’ नाम आप्युं. त्रीस वर्षना कुमारकाळमां तो
एमने जातिस्मरण थयुं ने संसारथी विरक्त थईने (कारतक वद दशमे) स्वयं
दीक्षित् थया. तेमने उत्तम खीरवडे प्रथम आहारदान फूलपाकनगरीना फूलराजाए
कर्युं. ऊज्जैननगरीना वनमां रूद्रे तेमना पर घोर उपद्रव कर्यो पण ए वीर
मुनिराज निजध्यानथी जरापण न डग्या ते न ज डग्या...तेथी नम्रीभूत थईने रुद्रे
स्तुति करी ने ‘अतिवीर’ (महातिमहावीर) एवुं नाम आप्युं.
आहारदान कर्युं. साडाबार वर्ष मुनिदशामां रहीने, वैशाख सुद दसमना रोज,
सम्मेदशिखरजी तीर्थंथी दशेक माईल दूर जाृंभिकगामनी ऋजुकूला सरिताना किनारे
क्षपकश्रेणी मांडीने प्रभुए केवळज्ञान प्रगट कर्युं. ए अर्हंतभगवान राजगृहीना
विपुलाचल पर पधार्या. ६६ दिवस बाद, अषाड वद एकमथी दिव्यध्वनिद्वारा
धर्मामृतनी वर्षा शरू थई; ते झीलीने ईन्द्रिभूति–गौतम वगेरे अनेक जीवो प्रतिबोध
पाम्या. वीरनाथनी धर्मसभामां ७०० तो केवळीभगवंतो हता; कूल १४००० मुनिवरो
ने ३६००० अर्जिकाओ हता, एक लाख श्रावको ने त्रणलाख श्राविकाओ हता, असंख्य
देवो ने संख्याता तिर्यंचो हता. त्रीसवर्ष सुधी लाखो–करोडो जीवोने प्रतिबोधीने
वीरप्रभुजी पावापुरी नगरीमां पधार्या; त्यांना उद्यानमां योगनिरोध करीने बिराजमान
थया, ने आसो वद अमासना परोढिये परम सिद्धपदने पामी सिद्धालयमां जई
बिराज्या.....ते सिद्धप्रभुने नमस्कार हो.
उपदेश पण एम ज करी, निवृत्त थया; नमुं तेमने.