: ८ : आत्मधर्म : मागशर :
ठेठ भरत चक्रवर्तीनो आप्यो. जेमां ऋषभदेवनी सभामां भरत चक्रवर्तीए शुद्धात्मानुं
स्वरूप पूछयुं तेम अहीं प्रभाकर भट्ट योगीन्दुदेवने विनयथी ते ज वात पूछे छे.
शुद्धात्मानी आराधनारूप रत्नत्रय जेने प्रिय छे एवा जीवो ज्ञानी पासे तेनो ज प्रश्न
पूछे छे. वाह! श्रोता एवो छे के जेने प्रियमां प्रिय आत्मा छे, आत्माना रत्नत्रय जेने
प्रिय छे, व्यवहारमां पंचपरमेष्ठीनी भक्ति प्रिय छे. ए सिवाय संसारमां बीजुं कांई
जेने प्रिय नथी; जेओ चैतन्यना वीतराग–निर्विकल्प आनंदरसना प्यासी छे, जेमने
रागनी के पुण्यनी पिपासा नथी; प्रवचनसारमां कहे छे के परमानंदना पिपासु भव्य
जीवोने माटे आ टीका रचाय छे. जुओ तो खरा! संतोए तो परम आनंदना परब
मांडया छे. जेम भर उनाळामां तृषातूर माटे ठंडा पाणीना परब मंडाया होय त्यां
तरस्या जीवो प्रेमथी आवीने पाणी पीए छे ने तेनुं हृदय तृप्त थाय छे; तेम
संसारभ्रमणना भर उनाळामां रखडी रखडीने थाकेला जीवने माटे भगवानना
समवसरणमां ने संतोनी छायामां चैतन्यना परम वीतरागी आनंदरसनां परब मंडाया
छे, त्यां परमानंदना पिपासु भव्य जीवो जिज्ञासाथी प्रेमथी आवीने शुद्धात्माना
अनुभवरूप अमृतपान करीने तृप्त थाय छे. अरे, क््यां नवमी गै्रवेयकथी मांडीने
नरकनिगोद सुधीना चारे गतिनां दुःखनो दावानळ! ने क्यां आ चैतन्यना अनुभवरूप
सुखना वेदननी शांति! अरे, चैतन्यना परम आनंदना अनुभव वगर बधुंय दुःखरूप
लागे छे. त्यांथी भयभीत थईने जे चैतन्यसुखने झंखे छे एवो जीव शुद्धात्माना
अनुभव तरफ जाय छे. जेम मोटा नागथी भयभीत थईने भागे तेम धर्मात्मा–
मुमुक्षुओ संसारनी चारे गतिना भयथी भयभीत थईने त्यांथी भाग्या ने चैतन्यना
शरणमां आव्या. जगतमां निर्भय स्थान आ एक चैतन्य ज छे, ते ज चार गतिनां
दुःखथी छोडावनार ने परम आनंदने देनार छे.
मुमुक्षुको सब चिन्ता छोडके
आत्माकी
मस्ती में मस्त रहना चाहिए