Atmadharma magazine - Ank 254
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : आत्मधर्म : ९ :
भेदज्ञान वडे
उपशमनी प्राप्ति
(समयसार सर्वविशुद्धज्ञान–अधिकार उपरना प्रवचनोमांथी: २)
आ लेखनो प्रथम भाग आत्मधर्मना गतांकमां आवी
गयो छे; बाकीनो भाग अहीं आप्यो छे. उपशमभाव के
जे जीवे कदी प्राप्त कर्यो नथी तेनी प्राप्तिनी प्रेरणा करतां
आचार्यप्रभु कहे छे के रे जीव! रागद्वेषनुं कारण नथी तो
क्यांय परमां, के नथी तारा ज्ञानमां; ज्ञान अने ज्ञेयोनी
अत्यंत भिन्नतारूप वस्तुस्वरूपने जे जाणे छे ते समस्त
ज्ञेयोथी अत्यंत उदासीन वर्ततो थको जरूर उपशमने
पामे छे. अरे, आवी वीतरागीवात ख्यालमां आववा
छतां जे उपशमने नथी पामतो–ते खरेखर मूढबुद्धि छे.
अरे, मूढ! जेवी परनी मीठास छे तेवी तारा ज्ञाननी
मीठास तने केम नथी आवती?– केम तुं तारा ज्ञान
स्वभाव तरफ वळतो नथी? भाई, ज्ञानना वीतरागी
स्वभावने जाणीने ते तरफ वळ....... ..... .... ने शांत
भावने पाम.
आत्मा शुद्ध ज्ञानस्वरूप छे; ज्ञाननो स्वभाव परथी उदासीन रहीने स्वयं
स्वपरने जाणे एवो छे. आवा ज्ञानने भूलीने अज्ञानी परज्ञेयोने ईष्ट अनिष्ट समजी
रागद्वेष करे छे. तेने अहीं समजावे छे के हे भाई, सामा पदार्थो कांई तने एम नथी
कहेता के तुं मारी तरफ जो. ज्ञेयोमां प्रमेयस्वभाव छे, पण तने रागद्वेष करावे–एवो
स्वभाव एनामां नथी. ने तारा ज्ञाननो स्वभाव पण एवो नथी के ज्ञेयोमां जईने तेने
बहारनो संयोग अनुकूळ हो के प्रतिकूळ, ते आत्माना ज्ञानमां अकिंचित्कर छे.
आत्मा ते संयोगने स्पर्शतो नथी ने संयोगो आत्माने स्पर्शता नथी. जगतमां अनंत
द्रव्यो एकक्षेत्रे रहेला होवा छतां तेओ एकबीजाने चूंबता नथी–स्पर्शता नथी, परस्पर
एक बीजाने अडता पण नथी तो तेओ एकबीजाने शुं करे?