Atmadharma magazine - Ank 254
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : मागशर :
आ निंदाना शब्दो, कुरूप, दुर्गंध वगेरे मने ठीक नहि एम समजीने अज्ञानी
तारा द्रव्य–गुण–पर्याय तारामां, परना द्रव्य–गुण–पर्याय परमां. आवा
पोताने ईष्ट न लागे एवी वस्तु ज्ञानमां जणातां अज्ञानी तो जाणे के ते वस्तु
ज्ञानमां घूसीने ज्ञानने बगाडी नांखती होय–एवी मिथ्याबुद्धिथी द्वेष करे छे. पण भाई,
सर्वज्ञना ज्ञानमां शुं नथी जणातुं? बधुंय जणाय छे. अने छतां शुं ते ज्ञानमां क्यांय
जराय रागद्वेष थाय छे? ना. जो पदार्थो ज ईष्ट–अनिष्ट थईने रागद्वेष कराववा मंडी
जाय तो तो सर्वज्ञना ज्ञानमांय रागद्वेष थाय!–केम के सर्वज्ञ तो बधायने जाणे छे. पण
ज्ञानमां परद्रव्य रागद्वेष करावतुं नथी. जेम सर्वज्ञना ज्ञानमां रागद्वेष नथी, सर्वज्ञनुं
ज्ञान सर्वज्ञयोने जाणवा छतां सर्वत्र उदासीन छे, क्यांय पण आसक्त नथी, तेम दरेक
आत्मानो ज्ञानस्वभाव रागद्वेष वगरनो छे, परथी उदासीन छे; ज्ञाननी स्वच्छतामां
परज्ञेय जणाओ भले, पण तेथी कांई ते ज्ञानमां रागद्वेष उत्पन्न करता नथी. अहा, केवुं
स्वतंत्र ज्ञान!! ए ज्ञानने परमां क््यांय रागद्वेष करीने अटकवापणुं नथी. ज्ञान तो
पोताना स्वरूपथी जाणनार ज छे. रागने जाणनारो रागरूपे नथी परिणमतो, रागने
जाणनारो ज्ञानरूपे ज परिणमे छे.
अरे, तने आ शुं थयुं छे के ज्ञाननी शांत–उदासीन दशाने बदले तुं रागद्वेषमां
वर्ती रह्यो छे? स्वपरनी अत्यंत भिन्नता अमे बतावी, ते सांभळीने पण तुं उपशम
केम नथी पामतो? पर ज्ञेय कांई तने पराणे खेंचतुं नथी ने तारुं ज्ञान पण कांई
आत्माने छोडीने परज्ञेयमां जतुं नथी. ज्ञान परने जाणे एनो कांई निषेध नथी; पण ते
वखते अज्ञानी पोताना ज्ञाननुं ज्ञानत्व चूकी जाय छे; ने पदार्थोने, रागद्वेषने तथा
ज्ञानने एकमेकरूप अनुभवे छे, एटले भिन्न ज्ञानना शांत अनाकुळ चैतन्यरसने ते
अनुभवतो नथी.