त्यां गुणीजनो प्रत्ये सहेजे साधक धर्मात्माने प्रमोद अने भक्ति आवे; परंतु ए
गुणीजनो कांई ज्ञानने राग करवानुं कहेता नथी, अने दुर्जनोनो समूह जगतमां होय ते
कांई ज्ञानने द्वेष करवानुं नथी कहेता. एटले के कोई पण पदार्थने कारणे तो रागद्वेष छे
ज नहि. हवे रह्युं पोतामां जोवानुं; पोतामांय ज्ञाननुं स्वरूप तो कांई रागद्वेष करवानुं
नथी. ज्ञान पोतामांथी बहार जतुं नथी. माटे ज्ञान पण रागद्वेषनुं कारण नथी. आ रीते
रागद्वेषनुं कारण नथी तो क्यांय परमां, के नथी पोताना ज्ञानमां, एटले ज्ञान अने
ज्ञेयथी भिन्नतानुं आवुं वस्तुस्वरूप जे जाणे छे ते समस्त ज्ञेयोथी अत्यंत उदासीन
वर्ततो थको जरूर उपशमने पामे छे. अरे, आवी वीतरागी वात ख्यालमां आववा छतां
जे उपशमने नथी पामतो ने परने ईष्ट–अनिष्ट मानी रागद्वेष करे छे ते मूढ दुर्बुद्धि छे.
भाई, आवुं वस्तु स्वरूप जाणवा छतां केम तुं तारा ज्ञानस्वभाव तरफ वळतो नथी?
जेवी परनी मीठास छे तेवी तारा ज्ञाननी मीठास तने केम नथी आवती? भाई, ज्ञान
वीतरागी स्वभावने जाणीने ते तरफ वळ....ने शांतभावने पाम.
आत्मामां आवता नथी. आ रीते जगतना पदार्थो पोतपोताना गुणपर्यायरूप
निजस्वरूपमां ज वर्ती रह्या छे ने अन्य पदार्थमां ते कांईपण करता नथी. पछी बीजो
तारामां शुं करे? कांई ज न करे; तोपछी तेना उपर राग–द्वेष शेनो? भेदज्ञानवडे आवुं
वस्तुस्वरूप जाणतां ज्ञान पर प्रत्ये उदासीन वर्ततुं थकुं पोताना स्वभावमां ज तत्पर
रहे छे; एटले ते उदासीनज्ञान–वीतरागीज्ञान क्यांय रागद्वेषनुं कर्ता थतुं नथी.
उपशांतभावने ज वेदे छे. ज्यां परमां कर्तृत्वनी बुद्धि छे त्यां रागद्वेष थाय ज छे ने
ज्ञानमां उदासीनवृत्ति रहेती नथी.
सहेजे उपेक्षावृत्ति थाय. पण जेने स्वपरनी वहेंचणी करतां ज न आवडे ते शेमां ठरशे?
ने शेनाथी पाछो वळशे? अज्ञानी दोडीदोडीने आकूळताथी परमां ज उपयोगने भमावे
छे, पण उपयोग तो मारुं स्वद्रव्य छे–एम स्वमां उपयोगने वाळतो नथी. तेने अहीं
स्पष्ट वस्तुस्वरूप समजावीने भेदज्ञान कराव्युं छे; के जे भेदज्ञान थतां स्वद्रव्यना
अवलंबने उपशांतरसनुं वेदन थाय छे.