माटे परद्रव्यमां शांति न शोध, के परद्रव्य उपर द्वेष न कर. परद्रव्यो पोताना तरफ तारा
ज्ञानने खेंचता नथी, ने तारुं ज्ञान पण कांई आत्मांथी बहार नीकळीने परमां चाल्युं
जतुं नथी. आवी भिन्नता छे, पछी रागद्वेष उत्पन्न थवानुं स्थान ज क्यां छे? रागद्वेष
नथी तो ज्ञानमां, के नथी ज्ञेयो ते करावता. एटले जेने ज्ञान अने ज्ञेयना भिन्न
वस्तुस्वरूपनी ओळखाण छे ते तो ज्ञानमां ज तन्मय रहेतो थको. रागद्वेषमां जराय
तन्मय न वर्ततो थको ज्ञाननी निराकूळ शांतिने अनुभवे छे. अने आवा ज्ञानी ज
मोक्षने साधे छे.
ज्ञानपणे ज रहे तो रागद्वेष रहित उपशांतभाव रहे. बहारना पदार्थो सुंदर के असुंदर
ते कांई ज्ञानने विक्रिया उत्पन्न करता नथी; विचित्र परिणतिरूपे जगतना ज्ञेयो
पोतपोताना स्वभावथी परिणमे छे, ने ज्ञान तेमने पोताना स्वभावथी ज जाणनारुं
छे. पदार्थ समीप हो के असमीप हो–तेथी ज्ञानना जाणवाना स्वभावमां कांई फेर पडी
जतो नथी. आवा ज्ञानने जे ओळखतो नथी ते अज्ञानी शास्त्र भणीभणीने पण
शास्त्रना साचा फळरूप उपशमने पामतो नथी. शास्त्रना साचा ज्ञाननुं तात्पर्य तो
उपशमप्राप्ति छे; एवा उपशमवाळुं जीवन ए ज साचुं जीवन छे, अज्ञानमय रागद्वेष ते
मरण छे. ज्ञानमय वीतरागजीवन ए ज साचुं आत्मजीवन छे. जेमां शांति न होय तेने
जीवन केम कहेवाय? एमां तो आत्मा मुंझाई रह्यो छे. ज्ञानमयभावथी जे शांतिनुं
वेदन ते आनंदमय जीवन छे.
विक्रिया थती नथी; कोलसा के सर्प आवतां तेनो प्रकाश झांखो पडी जाय के सोनाना
गंज ने हार आवतां तेनो प्रकाश तेज थई जाय–एवुं दीवाने थतुं नथी; तेम ज्ञानदीपक–
चैतन्यदीवो जगतना ज्ञेय पदोर्थो प्रत्ये उदासीन छे, राग–द्वेष वगरनो छे. ज्ञानप्रकाशमां
कोई रोग के निरोग, सोनुं के कोलसो, निंदाना शब्दो के प्रशंसाना शब्दो, रूप के कुरूप–ए
कोई वस्तु राग–द्वेष करावती नथी, तेमज ज्ञान प्रकाशमां एवो स्वभाव नथी के कोई
उपर रागद्वेष करे. भिन्नपणे रहीने, जुदो रहीने, मध्यस्थ रहीने, पोते पोताना
ज्ञानभावमां ज रहेतुं ज्ञान परम उपशांतभावने पामे छे.–आवुं विशुद्धज्ञान ते ज
मोक्षहेतु छे.