Atmadharma magazine - Ank 254
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : मागशर :
एने कांई ज सहारो न आपी शक््यो. राजमहेलमां वसनारी अंजना अत्यारे घोर
वनमां भटकी रही छे. अरे, दुर्भाग्यना आ दरियामां एकमात्र धर्मरूपी जहाज ज आ
शीलवतीने शरण छे. ज्यां उदय ज एवो होय त्यां धैर्यपूर्वक धर्मसेवन ए ज शरण छे,
बीजुं कोई शरण नथी.
उदास अंजनी वनमां अत्यंत विलाप करी रही छे....एनो विलाप देखीने सखीनुं
धैर्य पण जतुं रह्युं....ते पण रूदन करवा लागी. निर्जन वनमां अंजनी अने तेनी
सखीनो विलाप एवो करुण हतो के ए देखीने आसपासनी मृगलीओ पण उदास
थईने आंसु पाडवा
लागी.
घणीवार
थई....अंते विचिक्षण
सखीए धैर्यपूर्वक
अंजनीने छातीए
लगाडीने कह्युं हे सखी!
शांत था....रूदन छोड!
बहु रोवाथी शुं? तुं जाणे
छे के आ संसारमां जीवने
कोई शरण नथी. अरे,
ज्यां माता–पिता के भाई–बेन पण शरण नथी, त्यां बीजानी शी वात? सर्वज्ञदेव अने
निर्ग्रंथ वीतरागगुरु ए ज साचा माता–पिता ने बांधव छे ने ए ज शरण छे. तारुं
सम्यग्दर्शन ज तने शरणभूत छे, ते ज खरूं रक्षक छे, ने आ असार संसारमां ते ज
एक सारभूत छे. माटे हे देवी! आवा धर्मचिंतन वडे तुं चित्तने स्थिर कर.....ने प्रसन्न
था. वैराग्यमय आ संसार, त्यां पूर्वकर्मअनुसार संयोग–वियोग थया करे छे. तेमां हर्ष–
शोक शुं करवो? जीव चिंतवे छे कांई ने थाय छे कांई! संयोगवियोग एने आधीन
नथी.....ए तो बधी कर्मनी विचित्रता छे. माटे हे सखी! तुं वृथा कलेश न कर....खेद
छोड ने धैर्यथी तारा मनने वैराग्यमां द्रढ कर.–आम कहीने स्नेहपूर्वक सखीए
अंजनीना आंसु लूछया अने ते जराक शांत थतां फरी कहेवा लागी–हे देवी! चालो, आ
वनमां हिंसक प्राणीओना भय वगरनुं कोई स्थान के गूफा शोधीने त्यां रहीए; अहीं
सिंह वाघ ने सर्पोनो घणो भय छे... सखी साथे अंजनी मांडमांड पगलां भरे छे.
साधर्मीना स्नेहबंधनथी बंधायेली सखी एना छायानी माफक