Atmadharma magazine - Ank 254
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : आत्मधर्म : १७ :
कारतक मासनी
विविध वानगी
(चर्चा अने प्रवचनो उपरथी)
सिद्ध परमात्मानी पंक्तिमां
आत्माने भूलीने परनो महिमा ते अज्ञान छे. अने आत्मस्वरूपने निर्विकल्प
श्रद्धा– ज्ञानरूप समाधिमां देखवुं ते अपूर्व ज्ञानप्रकाश छे; एवुं ज्ञान थाय त्यां
संसारबंधन क्षणमात्रमां छूटी जाय छे. आत्मा सिद्धभगवान जेवा अचिंत्य सामर्थ्यथी
भरेलो छे तेने देखतां ज अनादिनी कर्मधारा तूटी जाय छे. अनंत सिद्ध परमात्माओनी
पंक्तिमां बेसाडी शकाय एवो आ आत्मा छे. आवा आत्मामां ज्यां द्रष्टि करी त्यां
अंदर पोते पूर्णानंदथी भरेलो भासे छे, ने बहारमां जाणे कांई न होय–एम शून्य भासे
छे, चैतन्यमां द्रष्टि मुकतां एक चैतन्यसमुद्रना शांतरस सिवाय बीजुं कांई देखातुं नथी.
आवा आत्माने अंतरमां देखवानी क्रिया ते ज मोटी अपूर्व क्रिया छे.
आत्माने जाणवामां तत्पर था
आत्मा क्यां रहेतो हशे? आ देहमां रह्यो होवा छतां ते देहने अडतो नथी;
देहनां लक्षणथी एनुं लक्षण जुदुं ने जुदुं ज राखे छे. आत्मा सदाय चैतन्यलक्षणपणे
रह्यो छे, जड देहरूप कदी थयो नथी. अरे, देहमां ज रहेला आवा तारा आत्माने हे
जीव! तुं स्वसंवेदनथी केम नथी जाणतो? बहारना बीजा तो प्रपंच घणा जाणे छे तो
तारा आत्माने केम नथी जाणतो? दूरदूरनी प्रयोजन विनानी वात जाणवा दोडे छे, तो
अहीं तारामां ज रहेला तारा आत्माने जाणवामां बुद्धि जोड.–ए अत्यंत प्रयोजनरूप
छे. अरे, तुं बीजानुं तो ज्ञान कर ने तारुं नहि! ए ते ज्ञान केवुं के पोते पोताने ज न
देखे! माटे हे भाई, आत्माने जाणवामां तत्पर था.
आनंदनुं वेदन
आत्मद्रव्यनी बेहद ताकात छे; तेना स्वरूपमां बेहद आनंदने शांति भरी छे;
पण एने देखे त्यारे तेनुं वेदन थाय. ते शांतिनुं वेदन आकुळता रहित छे, ईन्द्रियजनित
सुखदुःख तेमां नथी, तेमां आकुळता नथी, तेमां मननोय वेपार नथी. आवा शांत