Atmadharma magazine - Ank 254
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : मागशर :
अनाकुळ ईन्द्रियातीत सुखथी भरेलो आत्मा छे. तेने हे भव्य! तुं जाण, एने जाणवाथी
ज चारगतिना दुःखोथी छूटकारो थशे, ने एने जाणतावेंत ज पूर्वे कदी नहि अनुभवेला
एवा कोई आनंदनो अनुभव थशे.
आत्मानो मुख्य धर्म
आत्मानो मुख्य धर्म ‘ज्ञान’ छे; धर्मो तो आत्मामां अनंत छे, पण तेमां
ज्ञानधर्म वडे आत्मा अन्य समस्त द्रव्योथी भिन्न पोताना वास्तविक स्वरूपे ओळखाय
छे, तेथी तेने ‘प्रधान’ कहीने, ज्ञानने आत्मानुं लक्षण कह्युं छे एटले आत्माने
‘ज्ञानस्वरूप’ कहीने ओळखाव्यो छे. ज्ञाननी साथे अस्तित्व, वस्तुत्व, अमूर्तत्व वगेरे
बीजा अनंत धर्मो छे. पण ते अस्तित्व वगेरे धर्मोना निरुपणथी आत्मामां परथी
भिन्न ओळखातो नथी. केमके जड अचेतन द्रव्योमां पण अस्तित्व वगेरे धर्मो रहेला
छे.
ज्ञानपरिणमनमां अनंत धर्मो
‘ज्ञान ते आत्मा’ एम लक्षमां लईने ज्ञानमय परिणमन करतां, ते
ज्ञानपरिणमनमां आत्माना बीजा अनंता धर्मो पण भेगा ज आवी जाय छे. ज्ञान पोते
स्वसमयरूप थईने परिणम्युं त्यां तेमां सम्यक्त्व, आनंद, चारित्र, अस्तित्व, अमूर्तत्व
वगेरे बधा धर्मोनुं निर्मळ परिणमन समायेलुं छे. ज्ञान पोते पोतामां स्थिर थईने
परिणम्युं त्यां मोक्षमार्ग तेमां आवी गयो; ने चिंतानी जाळ बधी अद्रश्य थई गई.
‘ज्ञानमां राग नहि ने रागमां ज्ञान नहि’
ज्ञानना परिणमनमां ज्ञान साथेना बीजा धर्मो आवे, पण ज्ञानना परिणमनमां
रागादि विकार न आवे; ज्ञानना परिणमनमां देहादिनी क्रियाओ न आवे. ज्ञान
आत्माना सर्व धर्मोमां व्यापे छे, पण आत्माथी बहार देहादिनी क्रियामां के रागमां
ज्ञान रहेतुं नथी. तेमज ज्ञानमां परभाव रहेता नथी. ज्ञान तो स्वसमय छे ने रागादि
परभाव ते तो परसमय छे. स्वसमयमां परसमय नथी ने परसमयमां स्वसमय नथी;
एटले ज्ञानमां राग नथी ने रागमां ज्ञान नथी.
ज्ञाननी ताकात
ज्ञाननी एवी ताकात छे के स्वसन्मुख थईने आखा शुद्ध आत्माने स्वसंवेदनमां
ल्ये छे. स्वसन्मुख थईने शुद्धात्माने जेणे ध्येयरूप कर्यो ते शुद्धनय छे, ते ज्ञान ज छे.
शुद्ध–