आ तारा निधान!! अहा, चैतन्यना अनुभवनी शी वात करवी? जे पदनो पूरो महिमा
जेवो ज्ञानमां भास्यो तेवो वाणीमां पूरो आवी शकतो नथी. आवो अचिंत्य तारा
स्वभावनो महिमा, ते महिमा जेने भासे तेना आत्मामां ज्ञानदीवडा प्रगटे. प्रभो! पुण्य
अने संयोगनी पाछळ तुं दोड तेमां तारा चैतन्यनुं माहात्म्य लूंटाय छे. तारा चैतन्यनी
महत्ता चूकीने परनी महत्ता करवामां तुं कयां रोकाणो? परनी महत्ता करी करीने अने
स्वभावनी महत्ता भूलीभूलीने तुं संसारमां रखडी रह्यो छे. पण ज्यां स्वभावनुं
माहात्म्य लक्षमां लईने तेना अनुभवमां ठर्यो त्यां धर्मीना ते अनुभवमां समस्त कर्मनो
ने कर्मना फळनो अभाव छे; धर्मी ए कर्मफळने नथी भोगवतो, ए ते चैतन्यना आनंदने
ज भोगवे छे. वीरप्रभु जे मार्गे मोक्ष सीधाव्या ते मोक्षमार्गे प्रयाण करवानुं पहेलुं पगलुं
आ छे के आवा स्वभावनो महिमा लावीने तेमां अंतमुर्ख थवुं. अहो, अंतरमां नजर
करीने जेणे निजनिधान नीहाळ्या छे ते सम्यग्द्रष्टिधर्मात्मा शुद्धात्मप्रतीतिना बळथी कहे
छे के परभावनो