Atmadharma magazine - Ank 254
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : आत्मधर्म : प :
धर्मीने चैतन्यनो जे महिमा जाग्यो छे, राग तेने लूटीं शके नहि. चैतन्यमहिमा
स्वा.....नु.....भू.....ति
चैतन्यमूर्ति आत्मा सूक्ष्म अतीन्द्रिय वस्तु छे; ए कांई
ईन्द्रियग्राह्य वस्तु नथी के बहारथी जणाई जाय. ए तो
अंतमुर्ख ज्ञाननो विषय छे. अतीन्द्रिय होवा छतां अंतमुर्ख
ज्ञान वडे ते स्वानुभवमां आवी शके छे. ए स्वानुभूतिमां एक
साथे अनंता गुणोनुं निर्मळ परिणमन समायेलुं छे.
आ स्वानुभूति–क्रिया अन्य कारकोथी निरपेक्ष छे; तेना छए
कारको पोतामां ज समाय छे. अज्ञानभावमांय कांई पर कारको
न हता; अज्ञान वखतेय जीव पोते ज पोताना अज्ञानमय छ
कारकोरूप परिणमतो हतो; ने हवे ज्ञानदशामांय ते स्वतंत्रपणे
पोताना छ कारकोथी परिणमे छे, स्वानुभूति पोताना शुद्ध
आत्मतत्त्व सिवाय अन्य समस्त परभावोथी अत्यंत निरपेक्ष
छे.
“निज परमात्मतत्त्वना सम्यक्श्रद्धान–ज्ञान–अनुष्ठानरूप
शुद्धरत्नत्रयात्मक मार्ग परम निरपेक्ष होवाथी मोक्षनो उपाय
छे अने ते शुद्धरत्नत्रयनुं फळ स्वात्मोपलब्धि छे.”
–श्री नियमसार.
“रत्नसंग्रह” मांथी