विकारनी रुचिमां अनंत भवनां बीजडां पड्यां छे.
संसारमां रखडयो. छतां ते देहथी अलिप्त ज रह्यो छे; पोताना स्वरूपने कदी छोडयुं नथी.
सम्यग्दर्शन थयुं; त्यारे पहेलुं गुणस्थान छोडीने जीव चोथा गुणस्थाने आव्यो, ने त्यारे
ज धर्मनी ने मोक्षमार्गनी शरूआत थई.
त्रणकाळमां अमूर्तआत्मा मूर्तशरीरने कदी स्पर्श्यो नथी, कदी एकमेक थयो नथी. आत्मा
वसे छे क््यां? के देहमां; पण निश्चयथी पोताना चैतन्यशरीरमां रहेनारो आ आत्मा
देहने अडयो नथी, तेम ज देहनां रजकणो आत्माने अडयां नथी. अस्पर्शी आत्माने जड
केम स्पर्शे? जेम कमळपत्र क््यां रह्युं छे? के पाणीमां; अने छतां ते कमळपत्र पाणीने
अडयुं नथी, पाणीथी ते अलिप्त ज छे, तेम चैतन्यकमळ ते कायारूपी कादवनी वच्चे
रह्युं छतां ते कायारूपी कादवथी लेपायेलुं नथी. जड कायानो एक अंश पण चैतन्यमां
क््यांय प्रवेश्यो नथी. अहा, केटली स्पष्ट भिन्नता? आवी भिन्नता कोण देखे? के जे
जीव संयोगद्रष्टिना चश्मा उतारी नांखीने, असंयोगी स्वभावनी द्रष्टिथी देखे तेने
पोताना अंतरमां चैतन्यतत्त्व देहथी भिन्न विलसतुं देखाय छे.