Atmadharma magazine - Ank 255
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 12 of 29

background image
: पोष : : ९ :
देहथी विरक्त थईने तारा आत्माने निजस्वरूपना चिंतनमां जोड. तेमां तने परम
आनंदनी स्फूरणा थशे.
अहा, समभावमां स्थित धर्मात्मा–योगीने तेनी निर्विकल्प समाधिमां वीतरागी
अचिंत्य परमआनंदने आपतुं जे कोई परम तत्त्व स्फूरायमान थाय छे ते ज परमात्मा
छे. व्यवहारथी विमुख थईने शुद्धात्माना अनुष्ठानमां (अनुभवमां) जे स्थित छे एवा
कोई विरल योगीने अपूर्व परमआनंद प्रगटे छे. आवा परमानंदस्वरूप जे कोई
परमतत्त्व छे ते ज उपादेय छे, ने तेनाथी विपरीत बीजुं बधुंय हेय छे–एम हे शिष्य!
तुं जाण.–आम जाणीने तुं तारा आत्माने ज उपादेयरूप करीने तेमां तारा उपयोगने
जोड...तेमां तने कोई अपूर्व आनंद स्फूरायमान थशे.
जोरदार था
कोई कहे: अरे, आवडी मोटी वात? अमारी शक्ति तो थोडी ने आ तो बहु मोटी
वात! तो कहे छे के–अरे जीव! तुं जोरदार था...हुं नानो नथी पण सिद्ध जेवो छुं–एम
जोरदार थईने आत्माने परमात्मपणे प्रतीतमां ले. ‘हुं नमालो, हुं रागी, हुं पामर, हुं
अज्ञानी,–आवडी मोटी परमात्मा थवानी वात अमने केम समजाय! ’–एवी ढीली वात
ज्ञानमांथी काढी नांख, अने ‘हुं पूरो, हुं वीतराग, हुं परमात्मा, हुं सर्वज्ञस्वभावथी
भरेलो’ एम निश्चयस्वभावने द्रष्टिमां लईने तुं जोरदार था...ए स्वभाव तरफनुं जोर
करतां परमानंदना अनुभवनी स्फूरणासहित, अज्ञान टळीने ज्ञान थशे, राग टळीने
वीतरागता थशे, पामरता टळीने प्रभुता खीलशे. पण एकवार व्यवहारमांथी बहार
नीकळीने चिदानंद शुद्ध स्वरूपमां निश्चल था. ए शुद्धद्रष्टिमां ने ए स्वानुभूतिमां एवुं जोर
छे के केवळज्ञान अने सिद्धपद आपे. माटे हे मुमुक्षु! तुं जोरदार था. आत्माना स्वभावनो
उत्साह कर. व्यवहारथी (–विकल्पोथी–रागथी) दूर थईने आत्मानी समीप था.
कोण समीप...ने कोण दूर?
धर्मात्माने पोतानो शुद्धात्मा ज समीप छे, ने परभावो तो दूर छे; अज्ञानी
स्वभावने दूर राखीने परभावोने समीप करे छे; ने ज्ञानी परभावोने दूर करीने
स्वभावमां ज समीपता करे छे. मारी निकटनी–अंगत वस्तु होय तो ते मारो स्वभाव ज
छे, ए सिवाय कोई परभावो मारा निकटना नथी, मारा अंगत नथी, ए तो माराथी
पारका छे, दूर छे. आम स्वने ज निकट जाणीने अने परने दूर जाणीने, निज स्वरूपनी ज
सन्मुख थईने तेने ध्याव. तारुं स्वरूप तने परम आनंदरूपे अनुभवाशे.
भाई! तने आ
भवदुःख व्हाला न होय ने मोक्षसुखने तुं अनुभववा चाहतो हो, तो तारा ध्येयनी
दिशा पलटावी नांख...आत्मानो रंग लगाडी जगतथी उदास थई अंतरमां
चैतन्यस्वभावने ध्याव...ए ध्यानमां तने परम आनंदमय मोक्षसुख अनुभवाशे.