आनंदनी धारा उल्लसे छे. आत्मा पोते राग वगरनो आनंदस्वभावी
छे, तेथी तेनुं संवेदन पण ते ज जातनुं छे. परमात्मानी जात पोतामां
प्रगट कर्या विना परमात्मानुं खरूं स्वरूप जाणी शकाय नहि.
स्वसंवेदनना बळथी ज्ञानी पोताना चैतन्यभावमां बाह्यभावोने
जराय प्रवेशवा देता नथी.–आवुं स्वसंवेदन ते धर्म छे, ते मोक्षमार्ग छे,
तेमां शांति छे, तेमां परमआनंद छे. स्वसंवेदन कहो के शुद्धात्मानी
अनुभूति कहो, तेने संतोए समस्त जैनशासननो सार कह्यो छे. हे
जीव! तेमां ज तारा परिणाम लगाव.
कृपा करीने बतावो के जेने जाणवाथी मारुं अनादिनुं आ दुःख नाश थाय ने मने परम
आनंदनी प्राप्ति थाय. तेना उत्तरमां श्रीगुरु तेने परमअनुग्रहथी–प्रसन्नताथी
परमात्मस्वरूप समजावे छे.
परमस्वभावने स्वसंवेदनज्ञानथी जाणतां अंतरात्मपणुं थाय छे केवळज्ञानथी भरेलो
एवो जे परमात्मस्वभाव ते वीतरागीस्वसंवेदनज्ञानथी जणाय छे.
अनुभवनारुं ज्ञान तो रागना अभावरूप छे तेथी तेने ‘वीतराग’ विशेषण योग्य ज
छे. चोथा गुणस्थाने अविरत सम्यग्द्रष्टिनुं जे स्वसंवेदनज्ञान छे ते पण राग वगरनुं
वीतराग छे. चोथा गुणस्थाने राग तो होय छे ने?–तो कहे छे के स्वसंवेदनज्ञानमां
रागनो अभाव छे. स्वसन्मुख थयेला ज्ञानमां रागनुं वेदन नथी, एमां तो