Atmadharma magazine - Ank 255
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : : ११ :
अज्ञानीने एकलुं परलक्षी ज्ञान छे, तेमां तेने रागनुं ज वेदन छे. ज्ञानीने स्वसन्मुख
थयेला उपयोगमां रागना वेदननो अभाव छे तेथी ते स्वसंवेदन वीतराग छे. चोथा
गुणस्थानथी शरू करीने जेम जेम स्वसंवेदन वधतुं जाय छे तेम तेम वीतरागता पण
वधती जाय छे.
ज्ञान अंतर्मुख थईने पोताना स्वभावमां वळे त्यारे तेमां राग आवतो नथी;
स्वभावमां एकाग्र थयेल ज्ञानमां तो वीतरागी चैतन्यरसनुं ज वेदन छे. आवुं
स्वसंवेदन थाय त्यारे आत्माने सम्यक्पणे जाण्यो कहेवाय, ने त्यारे अंतरात्मापणुं
थाय. बाह्यवस्तुने ज जाणवामां जेनुं ज्ञान अटक्युं छे ते बहिरात्मा छे तेनुं ज्ञान
रागथी दुषित छे, तेमां कषायनुं वेदन छे. ज्ञान अंदरमां आव्युं त्यां वीतराग थयुं; ज्ञान
बहारमां गयुं त्यां सराग थयुं. जेनुं ज्ञान स्वने भूलीने एकला परने जोवामां ने रागने
ज तन्मयपणे वेदवामां रोकायुं ते बहिरात्मा छे, ते बहिरात्माने मूढभाव होय छे. हे
जीव! आवा बहिरात्मापणाने ओळखीने तेने तुं छोड; ने अंतरात्मापणुं महिमावंत छे
तेने तुं प्रगट कर.
अनादिथी तें बाह्यमां झंपलाव्युं छे तेमां तो तडकामां माछलुं तरफडे एना जेवुं
छे, तेमां क््यांय शांति नथी. आत्मानो उपयोग उपयोगमां ज रहे–एटले के
निजस्वरूपमां ज रहे–तेमां शांतिनुं वेदन छे. शांतिनो समुद्र आत्मा छे तेमां डुबकी
मारतां आनंदनुं संवेदन थाय छे ने तेमां रागनी आकूळता वेदाती नथी. माटे स्वरूपमां
डुबकी मारनारुं स्वसंवेदनज्ञान वीतराग छे, आनंदरूप छे. चोथा गुणस्थाने अंतरात्मा
थयो तेने आवा वीतराग आनंदनुं संवेदन होय छे. अहा, अंतरात्मानी शुं दशा छे तेनी
पण जगतने ओळखाण बहु दुर्लभ छे.
चोथे–पांचमे गुणस्थाने राग तो होय छे परंतु त्यां जे स्वसंवेदन छे ते कांई
रागवाळुं नथी, ते स्वसंवेदन तो राग वगरनुं ज छे; आ रीते स्वसंवेदन तो सर्वत्र
वीतराग ज छे. चोथा गुणस्थाने मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधी कषायोनो जे अभाव छे
तेटलो तो राग वगरनो वीतराग भाव छे, तेटली शुद्धता छे, तेटलो मोक्षमार्ग छे,
तेटलो निश्चय छे. जेटलो राग बाकी रह्यो तेटली अशुद्धता छे, ते मोक्षमार्ग नथी, ते
स्वसंवेदनरूप ज्ञानथी भिन्न छे. आवी अंतरात्मानी स्थिति छे.
आनंदस्वरूप आत्मा छे, तेना स्वभावमां ज देव–गुरु ने तीर्थ बधुं समाय छे.
देव एटले सर्वज्ञपद ते कांई आत्माथी भिन्न नथी, गुरु एटले साधकपद ते कांई
आत्माथी भिन्न नथी; अने तीर्थ एटले रत्नत्रयधर्म ते पण आत्माथी भिन्न नथी.
आवा आत्मानो अनुभव वीतरागी स्वसंवेदनज्ञानथी ज थाय छे; आत्माना संवेदनमां
रागनो अभाव छे.