असंख्यप्रदेशी चैतन्यघट अमृतरसथी भरेलो छे. वीतरागी आनंदथी भरेलो
चैतन्यकलश, तेनो स्वाद लेनारुं ज्ञान पण वीतराग छे. चोथा गुणस्थाने पण जेटलुं
स्वसंवेदन छे तेटलो वीतरागभाव छे. आवा वीतराग अंश वगर धर्मनी शरूआत थाय
नहि.
भेदज्ञानरूप बीजनो प्रकाश चोथा गुणस्थाने थयो छे. पछी गुणस्थान अनुसार
स्वसंवेदनज्ञान अने वीतरागभाव वधता जाय छे, शांति ने आनंदनुं वेदन पण वधतुं
जाय छे.
निष्परिग्रही मुनिराज छठ्ठासातमा गुणस्थाने एना करतांय अनंतगुणी आत्मशांति वेदे
छे. ने सर्वज्ञ परमात्माना पूर्णानंदनी तो शी वात? आवी शांतिनुं वेदन वीतरागी
बहारमां आत्मानी हाक वागे एम नथी. तारी हाक तारामां, तारो प्रभाव तारामां;
तारामां आनंदथी भरेला चैतन्यपूर वहे छे तेमां जेटलो एकाग्र था तेटली तने शांति.
आत्मा ज्यारे शुद्धोपयोगनी श्रेणीमां चडे छे त्यारे आनंदनी धारा उल्लसे छे. चोथा
गुणस्थानथी जेटली शुद्धता छे तेटली आनंदनी धारा वहे छे. रागनो जेमां संसर्ग नथी
एवा स्वसंवेदन वडे ज आत्मा जणाय छे ने आनंद वेदाय छे.
जाणनारुं ज्ञान तो रागसहित छे. अने रागसहित ज्ञान आत्मानुं स्वसंवेदन करी शकतुं
जातनुं छे. आवुं स्वसंवेदन जेने थयुं ते अंतरात्मा छे; ते परमात्माने जाणे छे ने
देहबुद्धिरूप बहिरात्माने छोडे छे.
आत्मस्वरूपने देखतो नथी ने बाह्यभावोमां ज आत्मबुद्धिथी रोकाई रहे छे. तेने अहीं मूढ
कह्यो छे ने अंतरात्माने विचिक्षण कह्यो तथा परमात्मा तो ब्रह्मरूप केवळज्ञानरूप छे. पोताना
चैतन्यभावमां बाह्यभावोने जराय प्रवेशवा देता नथी ए अंतरात्मानी विचिक्षणता छे.