ते मूढ; ते बहिरात्मा; वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनरूप ज्ञानवडे आनंदरूप परिणम्यो
ते विचिक्षण; ते अंतरात्मा; ते धर्मात्मा. ते अंतरात्मपणावडे परमात्मपणुं सधाय छे.
* आत्मानुं पूर्ण शुद्ध स्वरूप जेणे प्रगट कर्युं ते परमात्मा छे.
* आत्माने भूलीने बहारमां–देहादिमां आत्मबुद्धि करे ते बहिरात्मा छे.
चोथा गुणस्थानवाळो जीव अंतरात्मा छे, पंडित छे, सम्यग्दर्शनरूप निर्विकल्प
पोतामां आव्या वगर परमात्मानुं स्वरूप वास्तविकपणे जाणी शकाय नहि. पोताना
स्वसंवेदनथी परमात्मस्वरूपनुं ज्ञान थयुं त्यारे ज परमात्मानी खरी ओळखाण थई.
आवुं परमात्मस्वरूप इंद्रियातीत स्वसंवेदनथी ज जाणवामां आवे छे. शास्त्रना शब्दथी
के ते शब्दोना ज्ञानथी आत्मा अनुभवमां आवतो नथी. पण ज्ञानने आत्मा तरफ
वाळीने ज, आत्माना ध्यानथी ज आत्मा जणाय छे. संयोगमां सुखबुद्धिवाळो जीव
असंयोगी आत्माने नहि अनुभवी शके. सर्व वाते परिपूर्ण एवो आत्मस्वभाव, ते
निर्विकल्पद्रष्टि अने निर्विकल्प आनंदना संवेदनथी ज श्रद्धामां–ज्ञानमां–अनुभवमां
आवे छे.
आत्माने जाणवानो उपाय रागथी ने विषयोथी पार छे; एकलो ज्ञानमय था तो ज
ज्ञानमय आत्मा अनुभवमां आवे,–आम समजीने हे जीवो! चिद्रूपमां ज तमारा
परिणाम लगावो.
बाह्य विषयो ज छे. अंतरनो विषय आखो आत्मा, ते रागनो विषय थतो नथी,
अतीन्द्रियज्ञाननो ज विषय ते थाय छे.
विषयोथी ने रागथी पार एवो एकलो ज्ञानमय आत्मा, ते सर्व प्रकारे स्वरूपथी पूर्ण छे, ते
ज स्वाधीन सुखरूप छे; ते एकलानो अनुभव पण एकलो थईने (रागथी पार थईने) ज
थाय छे. माटे पोताने पोतानी ज सामे जोवानुं छे.–आज शरूआतनो सीधो उपाय छे.