Atmadharma magazine - Ank 255
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : : पोष :
आ देहरूपी देवालयमां बिराजमान चैतन्य प्रभु आत्मा, अने सिद्धालयमां
बिराजमान सिद्धप्रभु, तेमां खरेखर कांई फेर नथी. माटे पोतानुं स्वद्रव्य ज पोताने
उपादेय छे. जेवा सिद्ध तेवो तुं; सिद्धसद्रश तारो शुद्धात्मा ज तारे ध्याववा योग्य छे.
–ए ज शास्त्रनो सार छे.
जिनपद निजपद एकता, भेदभाव नहि कांई,
लक्ष थवाने तेहनो, कह्यां शास्त्र सुखदाई.
(श्रीमद् राजचंद्र)
रे जीव! सिद्ध भगवानमां अने तारा आत्मामां जरा पण भेद न कर. सिद्ध
करतां तारा आत्मामां जराय अधूराश नथी. आखी दुनिया वगर एकलो तुं पोते ज
ज्ञानथी–दर्शनथी–सुखथी ने प्रभुताथी परिपूर्ण छो. तेमां ज अवलोकन कर. जेम गोळ
कोने कहेवाय? के गळपणनो पिंड ते गोळ; तेम आत्मा कोने कहेवो? के ज्ञान आनंदनो
पिंड ते आत्मा; आवा आत्माने ज ध्येय करवो एम उपदेश छे. बधाय महापुरुषो
आवा निज आत्माने ध्येय करी करीने ज महान थया छे, तुं पण स्वसंवेदनमां तेने ज
उपादेय कर. स्वसंवेदन वडे एने देखतां ज तारा सर्व दुःखो दूर थशे ने कोई अचिंत्य
परम आनंद तने अनुभवमां आवशे.

श्री जिनभगवंतोए कहेलो
रत्नत्रयमार्ग सर्वोत्तम छे. अनादिना
जन्म–जरा–मरणना चक्ररूप भयानक
संसार रोग मटाडवा माटेनी ए अचूक
औषधि छे, अने मोक्षरूप परिपूर्ण
स्वस्थता (स्व आत्मामां स्थिरतारूप
स्वास्थ्य) ने देनार छे. ए रत्नत्रय परम
पवित्र छे, कल्याणकारी छे, तीर्थरूप छे,
मंगळरूप छे ने मोक्षनो सीधो मार्ग छे.