Atmadharma magazine - Ank 255
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : : १प :
वीरागी वरांगना
वैराग्य–उद्गारो
बावीसमा तीर्थंकर नेमप्रभुना वखतमां ‘वरांग’ नामना
राजकुमार थया; राज्याभिषेक, अनेक संकटो, महान पुण्योदय,
सम्यक्त्वसहित श्रावकव्रतोनुं ग्रहण, जिनमंदिर–महोत्सव, तत्त्वोपदेश
वगेरे अनेक प्रसंगो बाद, एकवार तारो खरतो देखीने वरांगकुमार
वैराग्य पामे छे ने वरदत्तकेवळी पासे दीक्षा लेवा जाय छे–ते प्रसंगे तेना
केटलाक वैराग्यउद्गारो.
(वरांगचरित्रमांथी)

कुटुंब–कबीला के प्रेमीजनो मने मात्र भोजनादि साधारण कार्योमां ज साथ
आपी शके छे, मृत्यु समये तो ते बधा व्यर्थ छे; तेमज धर्मकार्यमां पण ते साथ आपी
शकता नथी,–तो एनाथी मारुं शुं भलुं थवानुं छे? तेमज तेओ ज्यारे तेमना कर्म
अनुसार धकेलाई जशे त्यारे हुं पण तेने अटकाववा के बचाववा समर्थ नथी. जीवना
साचा साथीदार तो ते ज छे के जे धर्ममार्गमां साथ आपे छे.
ज्यारे भवनमां आग लागी जाय त्यारे समजदार मनुष्य बहार भागवानो
प्रयत्न करे छे, पण जे शत्रु होय छे ते तेने पकडीने फरी ते आगमां फेंके छे. तेम, वैरागी
वरांग कहे छे के मोहनी ज्वाळाथी भडभडतो आ संसार, ते संसारदुःखनी
अग्निज्वाळाथी हुं बहार नीकळवा मांगु छुं, तो हे महाराज! (पिताजी!) कोई शत्रुनी
जेम आप मने फरी ते अग्निज्वाळामां न फेंकशो, घरमां रहेवानुं न कहेशो.
ए ज रीते मोजांओथी ऊछळता भीषणसमुद्र वच्चेथी अथाग प्रयत्नपूर्वक
तरतो तरतो कोई पुरुष किनारा सुधी आव्यो अने कोई शत्रु धक्को दईने पाछो समुद्रमां
हडसेले, तेम हे पिताजी! दुर्गतिनां दुःखोथी भरेला आ घोर संसारसमुद्रमां अनादिथी
डुबेलो हुं वैराग्य वडे अत्यारे मांडमांड किनारा पर आव्यो छुं, तो फरीने आप मने ए
संसारसमुद्रमां न पाडो.
कोई मनुष्य शुद्ध–स्वादिष्ट–स्वच्छ अमृत जेवा मिष्टान्न जमतो होय ने शत्रु
तेमां झेर भेळवी दे, तेम हुं अत्यारे संसारथी अत्यंत विरक्त थईने, मारा अंतरमां
धर्मरूपी परम अमृतनुं भोजन लेवा तत्पर थयो छुं, ते वखते तेमां राज्यलक्ष्मीना
भोगवटानुं विष भेळवीने आप शत्रुकार्य न करशो.