जेने दुःख आपी न शके–अने जेमां ऊतरतां ज अनंत सुख ऊपजे एवा चैतन्यनी
प्रीति तुं केम नथी करतो? ने बहारना संयोगनो प्रेम करीने, तेनी साथे मित्रता
भाई, तारा स्वरूपनो विचार तो कर! तारा चैतन्यधामनी संपदानो अपार महिमा
केवळी भगवाने वर्णव्यो छे, अरे, एक वार तुं तुलना तो कर के क््यां सुख छे ने
क्यां दुःख छे? मारा स्वरूपमां अनंत सुख ने बहारना संयोगमां किंचित सुख
नहि,–आम न्यायनेत्रने ऊघाडीने, सम्यग्ज्ञान प्रगट करीने तुं विवेक कर...ने ए
बाह्यवृत्तिनी प्रवृत्तिनी बाळीने, चैतन्य सुखमां प्रवृत्त था. शीघ्र तुं बाह्यबुद्धि
छोडीने अनंत सुखधाम एवा आत्मामां तत्पर था. भाई! हवे तुं गंभीर था...तुं
डहापणवाळो–विवेकवाळो थईने तारा आत्माने संभाळ. पिता जेम पुत्रने शिख
आपे तेम अहीं संतो शिख आपे छे के हे वत्स! भवचक्रमां तुं घणुं घणुं रखडयो.
सुखधाम अंतरमां छे तेमां तुं ऊतर.
प्रभुमां छे तेटला ज तारामां सदाय प्राप्त छे. ज्यां जा त्यां तारा बधाय गुणो तारी
साथे ज छे, ने ते गुणो निज–निज पर्यायरूपे परिणम्या करे छे. तारो आत्मा तारा
गुण–पर्यायवाळो छे, पण तारो आत्मा शरीरवाळो नथी, संयोगवाळो नथी. एटले
तारा गुण–पर्यायोनुं कार्य बहारमां नथी, के बहारथी ते आवतुं नथी. तारामां ज
तारुं सर्वस्व छे. माटे तारामां ज तुं जो. तारा शुद्ध–गुण पर्यायवाळो आत्मा ज
ताकातवाळा तारा स्वद्रव्यने प्रतीतमां–ज्ञानमां–अनुभवमां लईने उपादेय कर, ए
तात्पर्य छे.
पदार्थो निजस्वभावथी ज गुण–पर्यायरूप छे, तेमां एवुं क््यां आव्युं के बीजो होय तो
तेना गुणपर्याय थाय? बीजाथी आना गुण–पर्यायमां कांई थाय एवी जेनी मान्यता छे
तेणे खरेखर द्रव्यने ‘गुणपर्यायवत्’ जाण्युं नथी. द्रव्य–गुण–पर्यायरूप वस्तुने ज जे
स्वरूपे जाणी शकतो नथी.