(१) आ आत्मा छे ते सर्वोत्कृष्ट चैतन्यरत्न छे.
(२) समस्त श्रुतसमुद्रनुं मंथन करी करीने संतोए आ सर्वोत्कृष्ट रत्न
प्राप्त कर्युं छे.
(३) आकाश क्षेत्रस्वभावथी अनंत छे, छतांय ते तो अचेतन–जड छे.
ज्यारे ज्ञान तो भाव सामर्थ्यथी अनंत छे, ने ते चैतन्यमूर्ति जाणनार छे.
(४) अनंत आकाश, ते नथी तो पोताने जाणतुं के नथी परने जाणतुं.
अनंत ज्ञानस्वभावी आत्मा ते पोताने जाणे छे ने परनेय जाणे छे.
(प) अनंत आकाशनेय पोताना सामर्थ्यथी मापी लेनारुं ज्ञान, तेनी
अनंतता आकाशनी अनंतता करतांय वधारे छे. केटली वधारे? के अनंतगुणी.
(६) तो एवा अनंतगुणा ज्ञानसामर्थ्यनो अनंतगुणो महिमा लावीने
हे जीव! ते ज्ञानमां ज एकाग्र था...ज्यां तुं ज्ञानमां एकाग्र थयो त्यां
लोकालोक तो तारा ज्ञानमां झूकेला छे. जेम ईन्द्रोना मुगट तीर्थंकरना चरणमां
झूकी पडे छे तेम लोकालोक केवळज्ञानमां झूकी पडे छे. ते केवळज्ञाननी आज्ञा
जगतमां कोई लोपी शके नहि. तेना ज्ञेयपणाथी कोई बहारमां रही शके नहि.
(७) अहा, केवुं दिव्य ज्ञानसामर्थ्य! ! केवो अचिंत्य एनो महिमा!
(८) अरे, तारा मति–श्रुतज्ञाननी य एवी ताकात छे के आवा
केवळज्ञान–सामर्थ्यनो पोतामां निर्णय करी ल्ये–पण क््यारे?–के ज्यारे ते
स्वसन्मुख थाय त्यारे.
(९) चैतन्य चिंतामणिना अचिंत्य महिमानुं ऊंडुं चिंतन करतां,
विकल्प अने ज्ञाननी एकता तूटी जाय छे, ने ज्ञान ज्ञानमां ज एकाग्र थाय छे.
–एटले आत्मा सम्यक्त्वादि भावोरूपे खीली ऊठे छे. आ रीते आत्मार्थी
जीवने आ सर्वोत्कृष्ट चैतन्यचिन्तामणि उत्तम ईच्छित फळनो (मोक्षनो)
दातार छे.
(१०) केवळज्ञाननां दिव्य किरणोथी झलकता सर्वोत्कृष्ट चैतन्यहीरानी
किंमत जे आंके छे ते जीव उत्तम सम्यक्त्वरत्नने पामीने पछी सर्वोत्तम
केवळज्ञानरत्नने पामशे.