Atmadharma magazine - Ank 255
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 4 of 29

background image
: १ : : पोष :
: वर्ष: २२ –: अंक त्रीजो: JANU 1965
_________________________________________________________________
जगत पासेथी कांई लेवुं नथी;
जगतने कांई देवुं नथी.
हे जीव! तुं विचार कर के बहारनी कई वस्तु वगर तारे
नथी चालतुं? तारा स्वभावमां एवी कई अधुराश छे के तारे
बीजी वस्तुनी जरूर पडे? शुं शरीर न होय तो तारा ज्ञाननुं
परिणमन अटकी जाय छे? शुं पैसा न होय तो तारो आत्मा जड
थई जाय छे? शुं ईन्द्रियो के बाह्य विषयो न होय तो तारो
सुखस्वभाव नाश पामी जाय छे? नहि. आत्मा पोते सदाय
चैतन्य परिणमनथी भरपूर ने सुखस्वभावथी परिपूर्ण छे.
पोताना ज्ञान के सुखने माटे बीजा कोईनी जरूर तेने पडती नथी.
जेम सिद्धभगवंतो देह वगर, ईन्द्रियो वगर, लक्ष्मी वगेरे बाह्य
विषयो वगर स्वयमेव पूर्ण ज्ञानी ने पूर्ण सुखी छे, तेम तारो
आत्मा पण एवा ज ज्ञान ने सुखस्वभावथी भरपूर छे. माटे हे
जीव! स्वसन्मुख थईने तारा आत्मामां ज तुं संतुष्ठ था, ने
बीजानी स्पृहा छोड. जगत पासेथी मारे कांई लेवुं नथी, केमके
मारे जे जोईए छे ते मारामां भर्युं ज छे; अने, जगतने मारे कांई
देवुं नथी, केम के जगतनी कोई वस्तु मारी पासे (मारामां) नथी
के हुं तेने आपुं.–आम निरपेक्ष थईने, जगतनो मोह तजीने,
निजस्वभावथी परिपूर्ण एवा तारा आत्माने तुं देख. तने उत्तम
आनंदनो स्वानुभव थशे.