भाई, आ भवदुःख तने वहाला न लागता होय ने
स्वभावसुखनो अनुभव तुं चाहतो हो, तो तारा
ध्येयनी दिशा पलटी नांख; जगतथी उदास थई
अंतरमां चैतन्यने ध्यावतां तने परमानंद प्रगटशे ने
भवनी वेलडी क्षणमां तूटी जशे, परम आराध्य एवो
चैतन्यदेव तारा अंतरमां ज बिराजी रह्यो छे.
हे जीव! आ संसारनी चारे गतिना भवथी, तनथी ने भोगथी उदास थईने अंतरमां
तारा शुद्धात्माने तुं ध्याव; एने ध्यावतां आ संसार दुःखनी वेलडी एक क्षणमां तूटी
तासु गुरुक्की वेल्लडी संसारिणी तुट्टेई।। ३२।।
भगवाननी दीक्षाना वर्णनमां ‘भव–तन–भोगथी विरक्त’ ए वात आवे छे. बहारना
भोगादिमां जेनुं चित्त उदासीन न होय ते पोताना आत्मामां चित्तने क््यांथी जोडे?
भाई, तने आ भवदुःख वहाला न लागता होय (‘न्होय वहालुं अंतर भवदुःख...’) ,
ध्येयनी दिशा पलटी नांख. भवथी पार एवो आनंदस्वरूप, तनथी रहित एवो अरूपी
अने बाह्य भोगोथी पार एवा अतीन्द्रिय आनंदथी भरपूर, आवा तारा आत्मानी
प्रीति–रुचि–महिमा प्रगट कर ने एनाथी विरुद्ध जे भव–तन–भोग तेनाथी तारा मनने
विरक्त कर. बहारथी मन विरक्त केम थाय? –के अंतरमां उपयोगने जोडे तो; अने
अंतरमां उपयोग