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(२७) आनंदमां आवी जा....
आ चैतन्यचक्रवर्तीना अद्भुतनिधानने ज्यां जीवे जाण्या त्यां चक्रवर्तीपदना १४
निधाननो आदर पण क्षणमात्रमां छूटी जाय छे. अरे, एकवार आनंदमां आवी जा...के
अहो, आवा निधाननो स्वामी हुं! स्वभावनी शक्तिनो उल्लास लावीने एकवार प्रसन्न
था...प्रसन्न थईने स्वशक्तिने संभाळतां ज तने अपूर्व आनंद थशे. आ जे आनंद
आव्यो एवा पूरेपूरा आनंदथी मारुं आखुं तत्त्व भरेलुं छे,–एम स्वसंवेदनथी प्रतीतमां
आवे छे. ने समस्त रागनुं स्वामित्व ऊडी जाय छे. अहा, जीव! संतोए तने तारा
अचिंत्य निधान देखाडया...एेने देखीने तुं हवे आनंदमां आवी जा.
(२८) सिंह जाग्यो ने हरणां भाग्या
जेने पोतानी प्रभुतानुं भान नथी एवो पामर जीव रागना एक कणियाने पण
छोडी शकतो नथी; पोतानी प्रभुताने जाणनार ज्ञानी धर्मात्मा तो क्षणमात्रमां सर्व
रागने छोडे छे. एक समयमां साधकने ज्ञान ने राग बंने साथे, छतां तेमां ज्ञान तो
ज्ञानीने स्वपणे अनुभवाय छे ने राग ते स्वभावथी परपणे अनुभवाय छे.–आम एक
ज पर्यायमां वर्तता बे भावो वच्चे पण धर्मीने भेदज्ञान वर्ते छे, पोतानी प्रभुताने
संभाळीने जे वीर जाग्यो तेनी सामे विकारशत्रुओ ऊभा रही शके नहि, चैतन्यसिंह
पोतानी वीरताथी जाग्यो त्यां विकाररूपी हरणीयां भाग्या.
(२९) चैतन्य राजानी प्रभुता–तेमां मेल नथी
‘‘चैतन्य हीरो’’ जेने हाथ आव्यो ते दुर्गंधित एवा विकारने केम पकडे? आ
चैतन्यराजा निजगुणोमां राजे छे–शोभे छे–म्हाले छे. एमां मेल केवो? विकार केवो?
जेम ‘राजा’नी प्रभुता कोई खंडित करी न शके, तेम चैतन्यराजानी प्रभुताने कोई हणी
शके नहि; आवी एनी प्रभुताथी स्वतंत्रपणे ते शोभे छे. पराश्रयमां–पराधीनतामां
शोभा नथी, स्वाधीनतामां ने स्वाश्रयमां ज शोभा छे. स्वभावशक्तिनी प्रभुताने
जाणीने जे पर्याये तेनो आश्रय लीधो ते पर्याय पण स्वाधीन प्रभुताथी शोभी ऊठे छे.
चैतन्यराजानी आवी प्रभुता खीली तेमां मेल नथी.
(३०) ज्ञानवडे ‘ज्ञायक’ने जाण
ज्ञान छे ते जणावायोग्य परज्ञेयोथी भिन्न छे, पण जाणनारथी ते भिन्न नथी.
जाणनार एवो जे ज्ञायकस्वभाव, तेनी साथे ज्ञाननी एकता–तन्मयता ते धर्म छे, तेमां
शांति छे, तेमां स्वपुरुषार्थ छे, तेमां आत्मानी प्रभुता छे रागादिमां ने परमां ज्ञाननुं
एकत्व मानवुं ते तो पामरता छे. तेमां अशांति छे, भाई, तुं जाणनारने जाण; ज्ञानवडे;
जेनुं ज्ञान छे तेने जाण; एटले के स्वसंवेदनथी पोताने जाण.
(३१) ज्ञाननो विस्तार रागमां नथी.
पोते पोताने स्वसंवेदनथी जाणतां रागादिभावो जुदा रही जाय छे, केमके
स्वभावमां ते रागादिभावो अभूतार्थ छे एटले के अभाव