: १० : : महा :
रूप छे. रागमां आत्मानी प्रभुता नथी, ज्ञानमां आत्मानी प्रभुता छे. प्रभुनो विस्तार
पोताना अनंत गुणोमां छे, परंतु प्रभुनो विस्तार रागमां नथी. माटे रागथी जुदो पडीने
तारी प्रभुताने प्रतीतमां ले...तो तारा आत्माना अनंत गुणोनुं परिणमन प्रभुताथी
शोभी ऊठशे. ए प्रभुतामां ज्ञाननो विस्तार फेलाशे, ने रागनो विनाश थई जशे.
(३२) तुं परने वळग्यो छो...ज्ञानप्रकाशी सूर्यमां अंधारु नथी
भाई, पर चीज कांई तने वळगती नथी, पण तुं ज सामेथी परने वळगे छे के
‘आ चीज मने रोके.’–एम तारी पोतानी ऊंधाईथी तुं हेरान थाय छे, पर चीज कांई
तने वळगीने हेरान करती नथी. अरे, तुं ज्ञानप्रकाशी सूर्य...तेमां वळी अज्ञानना
अंधारा केवा? तेमां परद्रव्य केवा! जेम सूर्यमां अंधारूं होय नहि; कदी सूर्य एम कहे के
मने अंधारूं हेरान करे छे! तो कोण माने? सूर्य होय त्यां अंधारू होय नहि. तेम तुं
चैतन्यप्रकाशी सूर्य जगतनो प्रकाशक ज्ञानभानु–ते एम कहे के मने आंधळा कर्म वगेरे
परद्रव्यो हेरान करे छे!–तो कोण माने? भाई, तारा चैतन्यना प्रकाशमां परद्रव्यो कदी
पेसे नहि. चैतन्य प्रकाश खील्यो त्यां परद्रव्य तो बहार ज दूर रहे छे. अहा, तारा चैतन्य
स्वरूपमां प्रवेश करतां मन पण ज्यां मरी जाय छे (मननुंय अवलंबन छूटी जाय छे) त्यां
कर्मोनी शी गति? कर्मनी के कोईनी ताकात नथी के आ चैतन्यनी प्रभुताना प्रतापने
खंडित करे. आवा अखंडित प्रतापथी आत्मानी प्रभुता शोभी रही छे.
(३३) सम्यग्द्रष्टिनी परिणति
जेम सूर्यमां अंधकार नहि तेम प्रभुतामां पामरता नहि. सम्यग्द्रष्टिनी निर्मळ
परिणतिमां रागनो ने संयोगनो अभाव वर्ते छे. सम्यग्द्रष्टिने राग होय त्यां अज्ञानी
मात्र रागने ज देखे छे, ने सम्यग्द्रष्टि ते वखते राग ज करतो होय–एम तेने लागे छे.
परंतु ते ज वखते राग वगरनुं जे निर्मळ परिणमन सम्यग्द्रष्टिने वर्ती रह्युं छे तेने
अज्ञानी ओळखी शकतो नथी. जो ए निर्मळ भावने ओळखे तो तो स्वभाव अने राग
वच्चेनुं भेदज्ञान थई जाय.
(३४) चैतन्य–वेपारीनी वखारनो चोकखो माल
अनंत गुणोना वैभवथी भरपूर आ चैतन्य वेपारी निर्मळभावोनो वेपार
करनारो छे. मलिन भावोनो वेपार करनारो ते नथी. मलिनता ए माल चैतन्यनी
वखारनो नहि, चैतन्यनी वखारमां तो अनंता निर्मळगुणोनो माल भर्यो छे, पण
चैतन्यनी वखारमां कयांय विकार नथी भर्यो. आ चैतन्यवेपारी चोख्खा मालनो ज
वेपार करनार छे, मलिन के भेळसेळवाळो माल एनी वखारमां नथी; तेमज गमे
तेटलो माल काढवा छतां एना भंडार कदी खूटता नथी. आवा अखूट भंडारवाळा
आत्मस्वभावने हे जीव! तुं जाण.
(३प) मुमुक्षुनो झणझणाट
अहा, पुरुषार्थनी तैयारीवाळो मुमुक्षुजीव