तो स्वभावनी अनंतशक्ति सांभळतां अंदरमां एम उल्लसी जाय के–झणझणाट मारतो
हुं अंदर ऊतरुं–के तरत मारा अनंत गुणोनी खीलवट करुं. स्वभावनो ताग लेवा ऊंडे
ऊतर्यो त्यां विकल्पनो रस रहेतो नथी, विकल्प तूटीने स्वभावना महिमामां ज्ञान लीन
थई जाय छे. आम निजशक्तिनो महिमा सांभळतां मुमुक्षुनी परिणति झणझणाट करती
जेम बहादुर वीर्यवान बाळक सिंहथी ये डरे नहि, ऊलटो सिंहनुं मोढुं झालीने
–बहादूर साधक कर्मरूपी सिंहथी डरे नहि, ज्यां ए पोताना स्वरूपमां लीन थाय त्यां
एम जे डरपोक छे–कायर छे ते चैतन्यने साधी शकतो नथी. चैतन्यने साधवा जे
अंतरमां ऊतर्यो ते वीरने जगतमां कोई रोकी शके नहि, एने कोईनो भय होय नहि.
आ रीते आत्माने साधनारा साधको बहादूर होय छे, पुरुषार्थवंत होय छे, पोतानी
अचिंत्यशक्तिनो तेने भरोसो छे, तेथी ते निःशंक अने निर्भय छे.
मारुं स्वरूप न समजाय....एम कहेतां तने शरम नथी
आवती? भव करतां तने शरम नथी आवती?–ने
भवना अभावनी वात सांभळतां तने थाक लागे छे?
अरे, साधक दशाना तारा एक विकल्पनी एटली ताकात
के ईन्द्रना ईन्द्रासननेय एकवार तो डोलावी द्ये....
जन्मतां वेंत त्रणलोकने क्षणभर तो खळभळावी नांखे,
पवित्र स्वभावनी केटली ताकात? आवी ताकातवाळो तुं
कहे के मने मारुं स्वरूप न समजाय !....एमां तने शरम
नथी आवती?