Atmadharma magazine - Ank 256
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : : महा :
नमः समयसाराय
स्वानुभूत्या चकासते
स्वानुभूति करनारो भाव, जेनो स्वानुभव करवानो छे एना
जेवो शुद्ध थाय–एक जातना थईने बंने तद्रूप थाय–तो ज स्वानुभूति
थई शके.
जेनी स्वानुभूति करवानी छे एनाथी विपरीत भाव वडे–भिन्न
भाव वडे–तेनी स्वानुभूति थई शके नहि.
जेम के–
रागनी अनुभूति वीतरागभाव वडे थई शके नहि.
रागनी अनुभूति करनारो भाव रागरूप ज होय.
वीतरागभावमां रागनी अनुभूति न होय.
तेम शुद्धात्मानी वीतरागी अनुभूति रागभाव वडे थई शके नहीं.
शुद्धात्मानी अनुभूति करनारो भाव रागरूप न होय,
पण शुद्धात्मानी जातनो ज वीतरागभाव होय.
रागभावमां वीतरागभावनी अनुभूति न होय.
ज्ञानस्वभावनी अनुभूति ज्ञानमय भाव वडे ज थाय,
अज्ञानमय (विकार) भाव वडे ते अनुभूति न थाय.
आनंदस्वभावी आत्मानो अनुभव आनंदमय भाव वडे थाय,
आकुळतावडे न थाय.
अहा, वस्तु सन्मुख थईने तेमां डुबी गयेलो भाव ज वस्तुने अनुभवे छे.
वस्तुथी बहार रहेलो कोई भाव वस्तुने अनुभवी शकतो नथी.
निर्विकल्प अनुभूतिनो जय हो.