मोटाई नथी, त्यां बहारना पदार्थो तो कयांय दूर रह्या. स्वानुभूतिथी तारा ज्ञान–दर्शन–
आनंदस्वरूप आत्माने तुं जाण. आ रीते स्वानुभवथी आत्माने जाणनारा अंतरात्मा
पोताना स्वभाव सिवाय बीजे कयांय पण पोताना आत्माने जोडता नथी, अथवा
बीजे कयांय ‘आ हुं छुं’ एवी आत्मबुद्धि तेमने थती नथी; चैतन्यस्वभावपणे ज
पोताना आत्माने भावे छे–अनुभवे छे.
ज अनुभवे छे, ए अनुभवमां राग नथी, राग अने पुण्य–पाप तो अनुभवथी बहार
जुदा ज छे. जगतथी जुदो आवो आत्मा स्वानुभूतिथी ज गम्य थाय तेवो छे.
नथी. दर्शन–ज्ञान चारित्र–मोक्ष वगेरे निर्मळभावो मारो आत्मा ज छे, मारा आत्माथी
बहार कयांय मारा दर्शन–ज्ञान–चारित्र नथी. मारा दर्शन–ज्ञान–चारित्रमां मारो
शुद्धआत्मा ज छे, मारा दर्शन–ज्ञान–चारित्रमां राग नथी, ने रागमां मारा दर्शन–ज्ञान–
चारित्र नथी. आवा आत्माने धर्मी अनुभवे छे. आ रीते श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र ने
मोक्षसुखरूप निर्मळभावे परिणमतो शुद्धआत्मा ज उपादेय छे. दर्शन–ज्ञान–चारित्र
संबंधी जे विकल्प छे ते शुद्धात्माथी बाह्य छे; विकल्प ते आत्मानुं अंतरनुं अंग नथी
पण बर्हिअंग छे; शुद्ध चैतन्यथी ए विकल्पनी जात जुदी छे. जो के शुद्ध परिणति साथे
ऊंचा प्रकारना होय छे; छतां शुद्धपरिणतिथी तो ते बाह्य ज छे. शुद्धपरिणति तो
निश्चयथी आत्मा छे, विकल्प अने पुण्य ते निश्चयथी आत्मा नथी.
कहे, एनो अर्थ ए थयो के, कां तो आठमाथी नीचेनां गुणस्थाने मोक्षमार्ग ज नथी,
अथवा तो निश्चय सम्यकत्वादि वगर ज मोक्षमार्ग छे. परंतु ते बंने वात खोटी छे.
मोक्षमार्गनी शरूआत चोथा गुणस्थानथी ज थई जाय छे, अने चोथा गुणस्थानथी ज
निश्चय सम्यकत्व होय छे. ज्यां निश्चय सम्यकत्व न होय त्यां मोक्षमार्गनी शरूआत होई
शके नहि. अने जो चोथा–पांचमा गुणस्थाने निश्चय न होय तो शुं त्यां एकान्त
व्यवहार छे? एकान्त व्यवहार ए तो मिथ्या ज छे. माटे निश्चय सम्यग्दर्शनपूर्वक एटले
अंतरात्मपणुं प्रगटे छे. ज्यां सुधी