Atmadharma magazine - Ank 256
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: महा : : २१ :
वगेरे) ते पण शुद्धात्माना आराधक जीवोना प्रतापे ज बन्या छे. शुद्धात्माथी मोटो बीजो
कोई देव के गुरु नथी. देव पोते पण शुद्धात्माने पामेला छे ने गुरु पण शुद्धात्माना ज
साधक छे. माटे शुद्ध आत्मा ते ज परमार्थ उपादेय छे. देव–गुरु पण ए शुद्धात्माने
उपादेय करवानो ज उपदेश आपे छे. जेणे अंतरमां शुद्धात्माने निश्चय श्रद्धा–ज्ञान–
चारित्रथी उपादेय कर्यो छे तेने तेनी साथे सविकल्पदशा वखते जे देव–गुरु तीर्थनी
उपासना वगेरेनो शुभभाव छे ते पण एवो छे के ते मोक्षनुं ज परंपरा कारण थशे,
एटले वच्चे भंग पडया विना ते वीतराग थशे अने त्यारे शुभराग छूटी जशे. एटले
निश्चय मार्गनी अप्रतिहत आराधना राखीने वच्चे ज्ञानीने व्यवहार आवे छे, एवी
निश्चय–व्यवहारनी शैलि वर्णवी छे. सविकल्पदशामां देव–गुरु–तीर्थनी सेवा–भक्ति–पूजा
वगेरेनो जे व्यवहार छे तेने सर्वथा न स्वीकारे तो एकान्त निश्चयाभासी जेवुं थई जाय.
तेमज एकला व्यवहारमां ज रोकाईने तेमां ज सर्वस्व धर्म मानी ल्ये ने स्वभावने भूली
जाय तो तेने अहीं समजावे छे के भाई! तारा दर्शनज्ञानचारित्र तो स्वद्रव्य छे,
परद्रव्यमां कांई तारा दर्शन–ज्ञान–चारित्र नथी; माटे स्वद्रव्यनुं ज तुं सेवन कर, ने
परद्रव्यना सेवनमां न जा. स्वद्रव्यना सेवनथी ज तने सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्ररूप
मोक्षमार्ग प्रगटशे. परद्रव्यने सेववा जईश तो राग थशे पण मोक्षमार्ग नहि थाय.
ध्यान करवायोग्य शुद्धात्मा के जे त्रणलोकनो सार छे, ते ज सम्यग्दर्शन छे, ते
शुद्धआत्माथी भिन्न बीजुं कोई सम्यग्दर्शन नथी. शुद्धस्वभावथी भिन्न एवो रागभाव
ते सम्यग्दर्शन नथी. शुद्धस्वभाव जे ध्येयरूप छे तेनाथी भिन्न बीजा बधा भावो ते
व्यवहार छे, एटले ते खरेखर सम्यग्दर्शनादि नथी, केमके सम्यग्दर्शन तो शुद्धआत्मा छे.
अने ते त्रण लोकमां सार छे. शुं राग त्रणलोकमां उत्तम छे? ना; अहीं तो कहे छे के
राग ते आत्मा ज नथी. राग तो आस्रव तत्त्व छे, शुद्धआत्मतत्त्व तो राग वगरनुं छे,
ज्ञानादि स्वभावथी भरेलुं छे.
आत्मानो निश्चय ते सम्यग्दर्शन छे, आत्मानुं ज्ञान ते सम्यग्ज्ञान छे, आत्मामां
निश्चलता ते सम्यक्चारित्र छे. आवा जे आत्माथी अभेद निश्चय रत्नत्रय ते ज
साक्षात् मोक्षकारण छे. आवा रत्नत्रय आत्मामां ज समाय छे, आत्माथी भिन्न बीजे
कयांय रत्नत्रय नथी. रत्नत्रय तो मोक्षनुं कारण छे, ते बंधनुं कारण नथी, अने रागादि
व्यवहार तो बंधनुं कारण छे, ते मोक्षनुं कारण नथी. शुद्ध रत्नत्रयरूप जे आत्मा ते ज
उत्तम–सारभूत ने ध्येरूप छे. एने ध्यावतां एकक्षणमां जीव भवनो पार पामी जाय छे.
स्वानुभूतिमां श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र–आनंद वगेरे अनेक निर्मळभावो अभेदपणे
स्वादमां–अनुभवमां आवे छे. जेम पीणामां अनेक रसनो स्वाद भेगो छे तेम
स्वानुभूतिमां आत्माना सर्वगुणोनो एकरस स्वाद छे, पण विकारनो स्वाद एमां भेगो
नथी. आवा चैतन्यने निश्चल–