Atmadharma magazine - Ank 256
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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FEB : 1965 : वर्ष २२ : अंक चोथो
जेने स्वभावनो रंग लाव्यो....
जेने स्वभावनो रंग लाग्यो तेने परभावनी
वात रुचे नहीं. व्यवहारनी–निमित्तनी–रागनी वात
आवे त्यां जेने एम उल्लास आवे के ‘जुओ...आ
अमारी वात आवी?’ तेने कहे छे के अरे भाई! आ
व्यवहारनी–रागनी–निमित्तनी एवी पराश्रयनी वातो
तने तारी लागे छे, ने एनो तो तने उल्लास आवे छे,
पण शुद्धात्मानी (निश्चयनी स्वाश्रयनी–शुद्ध उपादाननी
एवी) वात आवे ते तने पोतानी केम नथी लागती?
‘अहो, आ मारा स्वभावनी वात आवी!’ एम एनो
उल्लास तने केम नथी आवतो?–तने रागनी वातमां
उत्साह आवे छे ने स्वभावनी वातमां उत्साह आवतो
नथी, तो ते एम सूचवे छे के तने रागनी ज रुचि छे
पण स्वभावनी रुचि नथी. जेना हृदयमां आत्मानी
रुचि खरेखरी जागी ने जेने स्वभावनो रंग लाग्यो ते
जीवने स्वभावनी वात ज पोतानी लागे छे ने रागनी
वात एने पारकी लागे छे; शुद्ध स्वभाव ज एक
पोतानो लागे छे ने पर भावो ते बधा पारका लागे छे;
एटले स्वभावनो ज एने उल्लास आवे छे, ने रागनो
उल्लास आवतो नथी. आवो जीव रागथी भिन्न
शुद्धस्वभावने अनुभवे ज छे–केम के...एने रंग लाग्यो
छे स्वभावनो.