Atmadharma magazine - Ank 257
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: 8A : आत्मधर्म : फागण :
सुखनो स्वानुभव थाय छे, माटे तेने ज सारपणुं छे. आवा सारभूत जीवने ओळखीने
अहीं मंगलाचरणमां तेने नमस्कार कर्या छे. आ नमस्कार अपूर्व छे. आवा नमस्कारनो
भाव जीवे पूर्वे कदी प्रगट कर्यो न हतो; ज्यां चैतन्यस्वभावमां स्वसन्मुख थईने तेने
जाण्यो त्यां अतीन्द्रियसुख स्वानुभवमां आव्युं ते अपूर्व मंगल छे. आ मांगलिकमां
अपूर्व स्वसन्मुखता छे. स्वसन्मुख भावमां ज अतीन्द्रिय सुख ने ज्ञान छे तेथी ते
सारभूत मंगळ छे. स्वस्वभावनी सन्मुखता विना ज्ञान नहि, ने स्वस्वभावनी
सन्मुखता विना सुख नहि. जेने जाणवाथी सुख न मळे, जेने जाणवाथी सम्यग्ज्ञान न
थाय–एवा पदार्थोने ‘सार’ कोण कहे? सार तो तेने कहेवाय के जेने जाणतां सुख अने
ज्ञान थाय. एवो सारभूत पदार्थ तो शुद्धआत्मा ज छे. तेथी तेने नमस्कार करीने
मांगलिक कर्युं.
शुद्धात्माने नमस्कार एटले शुं?
शुद्धआत्मा, ज्ञान ने सुखस्वभावथी भरेलो छे तेने ओळखीने श्रद्धा–ज्ञानमां
लेवो ने परिणामने तेमां वाळवा–ढाळवा–लीन करवा ते शुद्धआत्माने नमस्कार छे; ने
आ रीते सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रवडे शुद्धआत्मा तरफ नमनारो जे भाव छे ते
मांगलिक छे. आवा आत्माने जाणे ने अतीन्द्रियसुखनुं वेदन न थाय एम बने नहि,
परसन्मुख थईने परने जाणतां तो सुख नथी, पोतानी अशुद्धताने जाणतां पण
जाणनारने सुख नथी, जाणनारने सुख क््यारे थाय? के जाणनारो ज्यारे पोते पोताने
जाणे त्यारे तेने सुख थाय. ने जे सुखने लावे तेने ज मांगलिक कहेवाय. आ रीते
शुद्धात्माने नमस्काररूप मांगलिक कर्युं.
आ त्रण मुदनो विचार करो–
* “ज्ञेय ते हुं नहीं, ज्ञान ते हुं”
* हुं ज ज्ञेय......ने हुं ज ज्ञाता.”