: फागण: आत्मधर्म :प:
प्रगटे छे. एने प्रगटाववा कोई बीजानुं अवलंबन लेवुं पडतुं नथी. जेमां विकल्पनुं के
ईन्द्रियोनुं अवलंबन लेवुं न पडे, ने स्वाश्रये एक समयमां पोतानुं पूरुं कार्य करे–एवुं
सामर्थ्य आत्मानी दरेक शक्तिमां छे. बे समय लागे नहि ने बीजानुं अवलंबन ल्ये
नहि– एक समयमां पूरुं जाणे एवी स्वयंभू–सर्वज्ञतामां परंतु कर्तृत्व नथी, रागद्वेषमोह
नथी. आवी सर्वज्ञता ने वीतरागता प्रगटे ए ज मोक्षार्थीए करवानुं छे. पोतामां जे
निधान छे ते ज प्रगट करवाना छे, क््यांय बहारथी नथी लाववा.
(४६) सर्वज्ञतानो निर्णय करनारो भाव सर्वज्ञनी
जातनो ज छे. शुद्धपर्याय साधक थईने शुं द्रव्यने साधे छे.
आवी सर्वज्ञतानो निर्णय ए स्वसन्मुख उद्यम छे. रागथी जुदो पडीने ज्ञान
तरफ वळ्यो त्यारे, ज्ञानरूप थईने सर्वज्ञतानी प्रतीत करी. सर्वज्ञतानी प्रतीत ज्ञानरूप
थईने थाय छे, रागरूप थईने सर्वज्ञतानी प्रतीत थती नथी. सर्वज्ञतानी प्रतीत करनारो
भाव सर्वज्ञतानी जातनो ज होय, एवी विरुद्ध जातनो न होय. अंतर्मुख थईने जे ज्ञान
सर्वज्ञस्वभावनी प्रतीत करे छे ते ज्ञान सर्वज्ञतानी जातनुं ज छे. आ रीते शुद्धआत्मानो
अनुभव शुद्धभाव वडे ज थाय छे, अशुद्धता वडे शुद्धात्मानो अनुभव थाय नहीं. आ
रीते निर्मळपर्याय ते साधक छे ने शुद्धद्रव्य ते साध्य छे. अनुभवमां साध्य–साधन बंने
अभेद छे. निर्मळपर्याय वडे शुद्धात्मा सधाय छे, राग वडे शुद्धात्मा सधातो नथी.
शुद्धपर्याय साधक थईने शुद्ध ़द्रव्यने साधे छे, एटले के तेमां तन्मय थाय छे. रागमां ए
ताकात नथी के शुद्धद्रव्यमां तन्मय थाय.
(४७) ‘अद्भुत चैतन्यरस’ तेने जाणनार ‘सर्वज्ञपुत्र’ छे.
अहो, आ अद्भुत चैतन्यरस! चैतन्यमां एवी अद्भुतता छे के भिन्नभिन्न
लक्षणवाळी अनंतशक्तिओ एक साथे तेमां रहेली छे ने ते बधी शक्तिओ शुद्धात्माने
लक्षित करावे छे. लक्षणद्वारा लक्ष्यरूप शुद्धात्माने लक्षमां लेवो एमां सम्यक् पुरुषार्थ छे.
ज्ञानद्रष्टिथी जेने नीहाळतां ज परमात्मानी प्रतीत थाय छे. परमात्मस्वभावने जेणे
प्रतीतमां लीधे ते सर्वज्ञनो पुत्र’ थयो. गणधरदेवने ‘सर्वज्ञपुत्र’ कह्या छे; अथवा
बधाय सम्यग्द्रष्टिने ‘जिनेश्वर के लघुनंदन’ कह्या छे
(४८) साध्य अने साधन बंने एकजातना होय.
विभावने अने स्वभावने साधन–साध्यपणुं न होय. साध्य ने साधन बंने एक
जातना होय. अरूपी चैतन्यस्वभाव विकारने के परने खरेखर स्पर्श्यो ज नथी एटले
अस्पर्शी छे. चैतन्यना घरमां विकल्पनो प्रवेश नथी, ने विकल्प वडे ए
चैतन्यस्वभावना घरमां जवातुं नथी. चैतन्यना घरमां जवा माटे चैतन्यनी जातनी ज
पर्याय जोईए. भले ए पर्यायनो काळ एक समयनो छे पण तेनी जात तो
चैतन्यस्वभाव जेवी ज छे. विकार साधन अने