: १०: आत्मधर्म :फागण:
होय के बीजा पासे भीख मांगती होय; तेम आ चैतन्यचक्रवर्तीनी निर्मळ परिणतिरूपी
पटराणी–ते एवी न होय के पराश्रय करीने विकारी थाय. अरे, तारा गुणपर्यायनी
साची स्थितिनुं पण भान तने न होय....ए ते केवी भ्रमणा!
(६२) विकल्पने अवकाश नथी......
धर्मात्माने प्रतिबंध नथी.
ज्ञानस्वरूपमां विकल्प नथी. “हुं मारामां ठरुं” एवा विकल्पनेय ज्ञानस्वरूपमां
अवकाश क््यां छे? ठरवारूप जे वीतराग परिणति छे–तेमां कांई विकल्प नथी, ने ‘हुं
ठरूं’ एवा विकल्प वडे कांई ए परिणति थती नथी.–तो पछी बीजा विकल्पनी शी
वात?
“चारेकोरथी प्रतिकूळताना डुंगर तूटी पडता होय–तो ते केम माराथी सहन थशे!” एवा
विकल्पनेय धर्मीनी निर्मळ परिणतिमां अवकाश नथी. अहा, स्वभावने अवलंबती
धर्मीनी जे निर्मळ परिणति खीली तेने रोके–एवो कोई पदार्थ ज त्रण काळमां ने त्रण
लोकमां नथी, एटले काळ के क्षेत्रनो प्रतिबंध धर्मात्माने छे ज नहि, एनी शक्ति तो
स्वाश्रये खीलती ज जाय छे.
(विशेष आवता अंके)
धर्मध्यानरूपी सुधासमुद्रमां
डुबकी मार
हे आत्मन्! तुं आत्माना प्रयोजनने अंगीकार
कर, अर्थात् अन्य प्रयोजनोने छोडीने केवळ आत्माना
ज प्रयोजननो आश्रय कर, तथा मोहरूपी गहनवनने
छोड. भेदज्ञानरूप विवेकने तारो मित्र बनाव. संसार–
देह–भोगोथी विरकत थईने वैराग्यने भज. परमार्थथी
शरीर अने आत्मामां जे भिन्नता छे तेनुं नियतपणे
चिंतन कर. अने आ रीते धर्मध्यानरूपी सुधासमुद्रमां
ऊंडो ऊतरीने अनंत सुखस्वभावथी विकसित एवा
मुक्तिना मुखकमलने देख.
(ज्ञानार्णव: ४२–२)