Atmadharma magazine - Ank 257
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: फागण: आत्मधर्म :११:
समकितीनी
आत्मसाधना
(परमात्म–प्रकाश–प्रवचनोमांथी)

हे जीव! आवो मनुष्यअवतार, ने आत्माने
साधवानो आवो अवसर फरीफरी मळवो बहु मोंघो
छे. माटे शुद्धात्माने आदरणीय समजीने तेने ज
साधवामां सर्व प्रकारे तत्पर था. सम्यग्द्रष्टि ज्यां होय
त्यां स्वद्रव्यमां ज रत छे. मुमुक्षुजीवे मुक्तिने माटे
स्वद्रव्यरूप चैतन्यरत्न ज निरंतर चिंतववा योग्य छे.
चैतन्यचिंतामणिना चिंतवनथी ज सम्यक्त्वथी
अतीन्द्रिय आनंद साथे तन्यम एवा आत्मस्वभावने जेणे उपादेय कर्यो छे
ते सम्यग्द्रष्टि छे; ते सम्यग्द्रष्टि केवा छे? के पोताने पोताथी ज जाणे छे. आत्मा
आत्मा वडे ज जणाय छे, बीजा कोई वडे जणातो नथी. जेणे अंतमुर्ख थईने
शुद्धात्माने उपादेय कर्यो ते जीव नियमथी निकटभव्य छे. भाई, तुं पहेलां नक्की
कर के सुखने माटे मारे मारो शुद्ध आत्मा ज उपादेय छे, रागादि कोई परभाव
मारे उपादेय नथी.–आम श्रद्धा अने ज्ञान चोकखां कर तो तने राग वगरनुं
वीतरागी संवेदन प्रगटे. पण श्रद्धा अने ज्ञान ज जेनां चोकखां नथी, रागने
उपादेय माने छे तेनी तो श्रद्धा ज विपरीत छे, तेने राग वगरनुं वीतरागी
संवेदन थतुं नथी. रागने उपादेय माने ते तो रागना ज वेदनमां अटकी रहे छे.
समकिती तो स्वद्रव्यमां बुद्धि जोडीने शुद्धात्माने साधे छे.
भाई, रागने उपादेय करवाथी ने चिदानंद स्वभावने भूलवाथी तुं एकलो
चार गतिमां परिभ्रमण करतो करतो दुःख भोगवी रह्यो छे. अरे, आ दुःखनो
ककळाट! आ अशांति! एमांथी तारे बहार नीकळवुं होय ने आत्मानी शांति
जोईती होय तो संतो तने एक मंत्र आपे छे के तारो आत्मा शुद्ध परमात्मा छे
तेने उपादेय करीने तेनुं ज रटण कर. आ जगतमां कांई पण शरण होय ने क््यांय
पण सुख होय तो ते शुद्धा–