Atmadharma magazine - Ank 257
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: १२: आत्मधर्म :फागण:
त्मामां ज छे; बीजुं कांई शरण नथी ने बीजे क््यांय किंचित् सुख नथी. माटे तारा
शुद्धात्माने देहादिथी अत्यंत भिन्न ओळख, तेनो आश्रय करीने तेनुं शरण ले, तेने उपादेय
करीने तेमां ज्ञानने जोड. ए अतीन्द्रियसुख छे. ए ज समकितीनी आत्मसाधना छे.
स्वद्रव्यमां जे रत छे ते ज सम्यग्द्रष्टि छे. अने ए सम्यग्द्रष्टि स्वद्रव्यमां ज
परिणमतो थको आठे कर्मोने नष्ट करे छे. सम्यग्दर्शन वगर स्वद्रव्यमां रति थाय नहि,
ने स्वद्रव्यमां लीनता वगर मुनिदशा थाय नहि, मुनिदशा वगर मुक्ति थाय नहीं.
स्वद्रव्यमां रतिवडे सम्यग्दर्शन थतां ज घणां कर्मो तो छूटी गया, पछी ते ज भावमां
आगळ वधतां वधतां चारित्रदशा प्रगट थईने सर्वे कर्मो छूटी जाय छे, ने मुक्ति प्रगटे
छे. आ समकितीनी आत्मसाधनानी रीत छे. आ रीते मुक्तिने माटे मुमुक्षुजीवे
स्वद्रव्यरूप चैतन्यरत्न ज निरंतर चिंतववा योग्य छे. चैतन्यचिंतामणिना चिंतवनथी
ज सम्यग्दर्शनथी मांडीने सिद्धपद सुधीनां ईष्टपदनी प्राप्ति थाय छे.
जुओ, आ समकितीनी आत्मसाधना! स्वद्रव्यमां रत सम्यग्द्रष्टि छे, ते तो
कर्मोथी छूटे छे; अने देहादि परद्रव्यमां जे रत छे ते मिथ्याद्रष्टि छे, ते बहुविध कर्मो
बांधीने संसारमां भमे छे. शुद्ध चैतन्यभाव हुं छुं–एम स्वद्रव्यने उपादेय करीने तेने जे
नथी अनुभवतो ते एकला रागादिने ज वेदे छे, परद्रव्यने पोतानुं माने छे ते जीव
परद्रव्यमां ज रत छे. स्वपरनी भिन्नताने जे जाणे नहि ने परद्रव्यनुं स्वामीत्व माने
तेने परमांथी रति छूटे नहि अने ते स्वमां रत थाय नहि.
शुभरागने धर्मनुं कारण माने के मोक्षनुं साधन माटे ते जीव रागमां ज रत छे,
वीतरागी आत्मस्वभावने ते जाणतो नथी, तेमां ते रत क््यांथी होय! तेनी तेने रुचि
नथी, अनुभूति नथी. परमात्मस्वभावथी विमुख थईने तेनाथी विपरीत एवा देहनी
जाति–कूळ–रूप वगेरेना मदमां जे रोकाय छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. अमारी जाति उत्तम,
अमारुं रूप उत्तम–एम देहनी जातिनां अभिमान करे छे ने तेमां ज लीन रहे छे ते
देहबुद्धि बहिरात्मा छे. अरे भाई! तारी जाति तो चैतन्य छे, देहनी जाति तारी नथी,
तारुं कूळ तो सिद्धोनुं ने तीर्थंकरोनुं छे; तारुं रूप तो शुद्धचेतना रूप छे. देहनुं रूप कांई
तारुं नथी. अहा, चैतन्यरूप जगतमां सर्वोत्कृष्ट छे, एम सम्यग्द्रष्टि तो निज
चैतन्यरूपने ज उत्तम जाणे छे ने देहरूपने पोताथी भिन्न समजे छे; “चेतनरूप अनुप
अमूरत.....सिद्धसमान सदा पद मेरो”......आवा आत्माने जे अनुभवे तेने जडना
ढींगलानुं अभिमान केम थाय? ए ज रीते चैतन्यविद्या ज जगतमां सर्वोत्कृष्ट छे एटले
चैतन्य विद्या पासे बीजी कोई विद्यानी महत्ता धर्मीने भासती नथी. अज्ञानीने बहारनुं
कंईक जाणपणुं थाय त्यां जाणे के अमे मोटा जाणकार....पण अरे मूढ! धर्मात्माए
चैतन्य–