कांई गणतरी नथी; माटे एमां अभिमान शा?
माणसोने पण ते आदरे नहीं; धर्मथी विरुद्ध होय एवा स्थानमां पोतानी पुत्री वगेरेने
आपे नहि; वळी लोकमूढताने ते सेवे नहि, एटले अमुक नदीमां नहावाथी पुण्य थशे,
पीपळो वगेरे अमुक झाड वगेरे पूज्य छे, कोई स्त्रीने सति कहेवी ने वळी तेने पांच
पति कहेवा–ए बधा लोकमूढताना प्रकारो छे, धर्मीजीवने एवी लोकमूढता होय नहि.
सर्वज्ञनुं स्वरूप शुं, वीतरागी निर्ग्रंथ–मुनि केवा होय, तेमनी कहेली वाणीरूप शास्त्रो
केवा होय–एनुं स्वरूप सम्यग्द्रष्टि बराबर ओळखे छे, ए देव–गुरु–शास्त्र तो सर्वोत्कृष्ट
पदार्थो छे, तेमां धर्मीजीवने मूढता होय नहि. सर्वज्ञना स्वरूपमां जेने संदेह न होय,
सर्वज्ञस्वरूपनो परम आदर होय, ए ज रीते मुनिदशानो पण महान आदर होय.–
एमां धर्मीजीव जराय ढीलाश न राखे. जेओ कुदेवादिने छोडतो नथी तेने माटे कहे छे के
अरे, आ लोकमां सर्पने देखीने तो भयभीत थईने लोको भागे छे, परंतु जेनुं सेवन
सर्प करतांय वधु अहितकारी छे एवा कुगुरुना सेवनने जीवो छोडतो नथी. सर्पनुं विष
बहु तो एकवार मारे छे, पण कुगुरुना सेवनमां जे मिथ्याभाव छे तेनाथी तो संसारमां
अनंतवार मरण थाय छे. माटे धर्मनो जेने खरो प्रेम होय ते एवा कुदेव कुगुरुना
सेवनने छोडे छे.
कोई शरीर नथी के जे तेणे धारण कर्युं न होय, एवुं कोई क्षेत्र लोकमां नथी के ज्यां
ते न जन्म्यो होय; एवो कोई उत्सर्पिणी के अवसर्पिणीनो काळ नथी के जेमां तेणे
जन्म–मरण कर्या न होय, एवो कोई मिथ्याद्रष्टिनो भव नथी के जे तेणे धारण कर्यो
न होय; स्वर्गमां असंख्यात वर्षना आयुष्यपणे उपजी आव्यो ने निगोदमां एक
श्वासमां १८ वार पण जन्म्यो ने मर्यो. एकेय भव बाकी नथी राख्यो. अने
मिथ्याद्रष्टिने योग्य एवा कोई अशुद्धभावो बाकी नथी के जे संसारभ्रमणमां जीवे न
सेव्या होय, उत्कृष्ट पाप भाव ने उत्कृष्ट (मिथ्याद्रष्टिने योग्य) पुण्यभाव जीव करी
चूक््यो छे पण चैतन्यनी शुद्धतानो भाव तेणे कदी पूर्वे प्रगट कर्यो नथी.
कुंदकुंदस्वामी कहे छे के द्रव्यकर्म–भावकर्म ने नोकर्म ए बधा परद्रव्य छे, ते
परद्रव्यमां जे रत छे, ने तेनाथी भिन्न स्वद्रव्यने जे जाणतो नथी ते जीव साधुना
व्रतो धारण करे तोपण मिथ्याद्रष्टि ज छे, ने मिथ्याद्रष्टिपणाने लीधे