पर्यायोमां लीन छे ते पर्यायमूढ–परसमय मिथ्याद्रष्टि छे, अने जे उपयोगलक्षणरूप
निजभावमां स्थित छे ते स्वसमय–सम्यग्द्रष्टि छे, एम समयसार–प्रवचनसार वगेरेमां
कह्युं छे. स्वसमयमां स्थिरतारूप जे सम्यग्दर्शनादि छे ते ज उपादेय छे–एम जाणो. अने
एनाथी पराङमुख एवुं जे परसमयपणुं ते हेय छे–एम जाणो. जेटलो स्वभावभाव छे
तेटलुं स्वसमयपणुं छे, ने जेटलो परभाव छे तेटलुं परसमयपणुं छे. सम्यग्द्रष्टिने चोथा
गुण– स्थानथी ज स्वसमयपणानो प्रारंभ थई गयो छे; अने जेटलो रागादि परभाव
छे तेने परसमय जाणीने, तेमां ते लीन थतो नथी. अज्ञानी तो रागादिरूप
व्यवहारक्रियाने ज जाणे के ते स्वसमय ज होय एवा रसथी भेटे छे–तेमां लीन थईने
वर्ते छे, तेने शुद्ध परिणतिरूप आत्मव्यवहारनी खबर नथी, परिणतिद्वारा शुद्धआत्माने
ते भेटतो नथी, पण परद्रव्यने भेटे छे; ‘हुं मनुष्य ज छुं’ एम मानीने शरीर साथे
एकत्वबुद्धिथी ते वर्ते छे, एटले मनुष्यव्यवहारने ज ते पोतानो व्यवहार जाणे छे, पण
शुद्धचेतनारूप आत्मव्यवहारने ते ओळखतो नथी.
ज्यां होय त्यां त्यां स्वद्रव्यमां ज रत छे, एटले के सर्वत्र आत्मापणे ज ते रह्यो छे.
नरकमां के स्वर्गमां रहेलो सम्यग्द्रष्टि नारकी थईने के देव थईने नथी रह्यो पण ‘हुं तो
चैतन्यस्वरूप आत्मा छुं’ एम आत्मा थईने ज रह्यो छे. अने मिथ्याद्रष्टि ज्यां होय
त्यां परद्रव्यने ज पोतानुं मानीने परसमयरूप थईने रह्यो छे. मिथ्याद्रष्टिने बहिरात्मा
कहो के अनात्मा कहो के परसमय कहो, अने सम्यग्द्रष्टिने अंतरात्मा कहो, स्वसमय कहो
के आत्मरूप थईने रह्यो–एम कहो. अहा, सम्यग्द्रष्टि अने मिथ्याद्रष्टिमां केटलो फेर?
भेदज्ञान थयुं ने द्रष्टि पलटी त्यां बधुं पलटी गयुं. अनादिथी विभाव होवा छतां ज्यां
आत्माना स्वभावनुं सम्यक्भान कर्युं त्यां ते विभावो क्षणमात्रमां छूटी जाय छे.
विभावने टाळवानो एक ज उपाय के आत्मानुं सम्यक्भान. श्रीम्द राजचंद्र कहे छे के–
तेम विभाव अनादिनो ज्ञान थतां दूर थाय.
नष्ट करतो जाय छे. अज्ञानी तो राग अने स्वरूपनी जुदाई ज जाणतो नथी, कोने
साधवुं ने