Atmadharma magazine - Ank 257
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: फागण: आत्मधर्म :१प:
कोने छोडवुं तेनी ज तेने खबर नथी. साधवा योग्य मारुं शुद्ध स्वरूप शुं छे, ने एनाथी
बहारना छोडवा जेवा परभावो कया छे–एनो निर्णय कर्या वगर जीव परभावने छोडी
शके नहि ने स्वभावने साधी शके नहि. भाई, तारो आत्मा अभेद रत्नत्रयरूप
परिणमवाना स्वभाववाळो छे, ते ज तारे उपादेय ने आदरणीय छे. कर्मबंधना
कारणरूप जे मिथ्यात्वादि परभावो छे ते तारे आदरणीय नथी पण हेय छे. माटे
शुद्धआत्माने आदरणीय समजीने तेने ज साधवामां सर्वप्रकारे तत्पर था. शुद्धात्मारूप
स्वद्रव्यमां बुद्धि जोडीने तेमां रत थवुं ते समकितीनी आत्मसाधना छे.
अडग मेरु पर्वत
जेम मेरुपर्वत गमे तेवा
पवनथी पण डगतो नथी; तेम आ
चैतन्यमेरु–आत्मस्वभाव ते
विकाररूपी पवनना तरंगवडे डोली
जतो नथी. चैतन्यमेरु निजस्वरूपथी
कदी च्यूत थतो नथी. अने आवुं
निजस्वरूप जेणे प्रतीतमां–अनुभवमां
लीधुं एवा जीवनी सम्यकत्वपरिणति
पण एवी अडोल छे के प्रतिकूळ
संयोगना गमे तेवा तोफानथी पण ते
डगती नथी; जेम चैतन्यमेरु अडग छे
तेम तेना आश्रये खीलेली परिणति
पण अडग छे; संयोगना वायरा एने
डोलावी न शके.