: 6A : आत्मधर्म : फागण :
चरणमां एकलो अतीन्द्रिय आत्मरस झरे छे, अमृत–रसथी भरेला आ श्लोको छे.
पहेलां ज ‘सत्पणुं बताव्युं. षट्खंडागममां पण पहेलां सत्परुपणां लीधी छे.
सत्पदपरुपणा एटले जे वस्तु सत् छे–तेनी प्ररूपणा छे. अहीं पण मंगळमां
भावाय.....नमः एम कहीने सत्स्वरूप जे शाश्वत आत्मपदार्थ शुद्ध आत्मा तेने नमस्कार
कर्यो छे. पोते पोताना शुद्धस्वरूपने नमे छे–ते तरफ ढळे छे. परिणति अंतरस्वरूपमां
वळी ते हवे परभाव तरफ ढळवानी नथी. एवुं आ अप्रतिहत मंगळ छे.
शुद्धआत्मा सत्तास्वरूप वस्तु छे; ते वस्तुनो स्वभाव केवो छे? के चित्स्वभाव छे.
चैतन्य ज जेनुं सर्वस्व छे. एकला चैतन्यभावथी बनेली आत्मसत्ता छे. साकर एटले
गळपणनो पिंड, तेम आत्मा एटले चैतन्यनो पिंड. ए चैतन्यपिंडमां राग समाय नहि. ‘राग
नथी’ एवी नास्तिनी वात न लीधी, पण ‘चैतन्यस्वभावरूप सत्ता’ छे एम अस्तिनी ज वात
लीधी. ‘अस्ति’ स्वरूप ओळखतां ‘नास्ति’ नो पण ख्याल आवी जाय छे.
चैतन्यगुण वडे चैतन्यसत्ताने लक्षमां ल्ये तो निर्विकल्प द्रष्टि थई जाय. जगतमां
अनंता पदार्थो सतरूप–भावरूप छे, तेमां कोई चेतन छे, कोई अचेतन छे; तेमांथी
नमस्कार करवा योग्य पदार्थ कोण छे? के चेतनपदार्थ नमस्कार करवा योग्य छे. समस्त
पदार्थोमां साररूप चेतनपदार्थ छे, तेथी ते नमस्कार करवा योग्य छे.–आवो अर्थ ‘नमः
समय साराय’ मांथी नीकळे छे.
हवे, ते समयसार–शुद्धआत्मा केवो छे? के ‘चित्स्वभाव’ छे–एम कहीने तेनो
गुण बताव्यो. जो के ‘समयसार’ कहेतां तेमां तेना गुणो गर्भितपणे आवी जाय छे,
केमके वस्तु अने तेना गुणोनी एक ज सत्ता छे, कांई जुदा नथी,–तोपण गुणभेद
पाडीने समजाव्युं; केमके विशेषगुणवडे वस्तुनुं स्वरूप ओळखाव्या वगर तेनुं सम्यग्ज्ञान
थतुं नथी, माटे ‘चित्स्वभाव’ एवुं विशेषण कह्युं.
समयसार एटले आत्मा; समय एटले सामान्यपणे वस्तु, तेमां जे सारभूत
चेतन– पदार्थ एवो जीव, ते ज उपादेयरूप छे तेथी तेने नमस्कार कर्या छे. ‘समय’
शब्दना तो घणा अर्थो थाय छे, पण अहीं मांगळिकना आ अवसरमां समय एटले
वस्तु, ने तेमां सारभूत चेतन वस्तु; आ रीते पदार्थोमां सारभूत एवा चेतनपदार्थने
नमस्कार ते प्रमाण राख्या, ने बीजाने असाररूप जाणीने ते अचेतनपदार्थोने
नमस्कारनो निषेध कर्यो. आम छतां व्यवहारमां जिनवाणी–जिनबिंब वगेरे पण
वंदनीय छे, ते वात बीजा कळशमां लेशे. जिनवाणी ते सर्वज्ञस्वभावने अनुसरनारी छे,
सर्वज्ञस्वभाव नमस्कार योग्य छे, त्यां निमित्तथी ते स्वभाव दर्शावनारी वाणीने पण
वंदन करवामां आवे छे. पण अहीं परमार्थ मंगलाचरणना प्रसंगमां नमः समयसाराय
कहेतां चेतन्यस्वरूप शुद्ध आत्मवस्तु ज नमन करवा योग्य छे. विकल्पादि अशुद्धता पण
साररूप नथी, तेथी तेने पण ‘समयसार’ मांथी काढी नांखशे.
पं. राजमल्लजीए आ कलशटीकामां समयसारना भावो खोल्या छे. आ कळशटीका