
आत्मा अत्यारे पण अमूर्त ज छे; एने मूर्त कह्यो ते तो उपचारथी ज कह्यो छे, खरेखर
ते मूर्त नथी. मूर्त तो शरीर ज छे. आत्मा तो सदाय उपयोगस्वरूप अमूर्त ज छे. आवा
आत्माने जे जाणे तेणे ज खरा आत्माने जाण्यो कहेवाय अंतमुर्ख जोनारने पोतानो
आत्मा अमूर्त ज भासे छे, मूर्तपणुं जराय भासतुं नथी. ज्यां कर्मनो संबंध ज नथी
भासतो त्यां वळी मूर्तपणुं केवुं? अरे, अनंत शक्तिवाळा आत्मस्वभावमां ज्यां
विकारीपणुं पण नथी त्यां वळी मूर्तिकपणुं केवुं? आत्माने मूर्त देखवो ए तो घणी स्थूल
द्रष्टि छे. आत्मामां अमूर्त शक्ति छे. तेना उत्पाद–व्यय कांई मूर्तरूप नथी. मूर्त तो जड
छे. आत्मा कांई जड नथी के ते मूर्त होय.
स्वभावनुं वर्णन प्रवचनसार गा. ९९ वगेरेमां बताव्युं छे. त्यां तो निर्मळता के विकार
बधुं आत्माना सत् स्वभावमां समाय छे.
आवे, त्यां परथी भिन्नता बतावी हती, अहीं विकारथी पण आत्मानी भिन्नता
बताववी छे.
निर्मळ पर्याय तो शरू थई ज जाय; छतां जे विकारभाव होय ते पण आत्माना उत्पाद–
व्ययमां समाय छे, ते पण आत्माना सत्मां समाय छे, केम के त्यां प्रमाणना विषयरूप
द्रव्यनुं वर्णन छे.