: चैत्र : आत्मधर्म : ११ :
जिनवचननो सार
शुद्धात्मानी आराधना वडे रत्नत्रयनी प्राप्ति
करवी ते जिनवचननो सार छे. सौथी उत्कृष्ट एवो जे
शुद्धात्मा तेनी भावना जन्म मरणनो नाश करनारी
छे. हे भव्य! शरीरमां जरा–मरण देखीने तुं भयभीत
न था, अजर–अमर आत्माने भज. उत्साहपूर्वक एने
ज भाव...एनी भावनाथी तने परम आनंदनी प्राप्ति
थशे. एकवार आत्मानुं वहाल कर......ने जगतनुं
वहाल छोड.
(परमात्मप्रकाश–प्रवचनो)
जिनवचनने पाम्या वगर, एटले के जिनवचनमां कहेलां रत्नत्रयने पाम्या
वगर जीव ज्यां न भम्यो होय एवुं कोई स्थान आ जगतमां नथी. जिनवचनना
सारने ग्रहण न करवाथी जीव संसारमां सर्वत्र भम्यो छे. जुओ, जिनवचननो सार तो
ए छे के रत्नत्रयनी प्राप्ति थाय. रत्नत्रयनी प्राप्ति शुद्ध आत्मस्वभावनी आराधनाथी
ज थाय छे, एटले शुद्ध आत्मानी आराधना (तेनी श्रद्धा, तेनुं ज्ञान, तेमां लीनता) ते
जिनवचननो उपदेश छे. आवा जिनवचननो सार जे जीव ग्रहण करे छे ते रत्नत्रयने
पामीने भवसागरने तरी जाय छे.
अरे, आनंदस्वरूप आत्मा–ते परमार्थ सुखथी भरेलो छे, ईन्द्रियसुखनी
कल्पनाय तेनामां नथी. ईंद्रोना जे ईन्द्रियसुख ते पण आनंदस्वरूप आत्माथी विरुद्ध छे.
ईन्द्रिय– सुखोमां आकुळता छे, राग छे, दुःख छे, ते खरेखर आत्मानी चीज नथी.
शुद्धनय तेने ज आत्मा कहे छे के जे आनंदथी ज भरेलो छे, जेमां आकुळता नथी.
आवा आत्माने रागरहित समाधिमां देखवो ते सम्यग्दर्शन छे. धर्मात्मा पोताना
ध्यानमां आवा परम आनंदस्वरूप आत्माने ज ध्यावे छे. ते ज उपादेय छे, ने तेनाथी
विरुद्ध एवा ईन्द्रियसुखो हेय छे.
आत्मा सदाय शुद्ध निजभावस्वरूपे ज छे, ते कदी परभावरूप थई गयो नथी.
शुद्ध द्रष्टिथी जोतां शुद्ध आत्मा देखाय छे. अशुद्ध पर्यायमां जे रागादि होय