: चैत्र : आत्मधर्म : १३ :
अनंतसुखनुं धाम एवो आ आतमराम छे. शुद्धनिश्चयथी ते सिद्धसमान शुद्ध
जन्म के मरण, बाळपण के घडपण, रंग के रोग–ए बधुंय शरीरमां छे, जीवमां
हे जीव! आ शरीर छेदाय–भेदाय के क्षय पामे तेमां तुं खेदखिन्न मत था;
उत्साहथी तारा निर्मळ आत्माने ज भाव के जे आत्मा परमात्मापदनो दातार छे, ने
जेनी भावनाथी भवनो तीर पमाय छे. अरे, आ देहना; संयोग–वियोग पण ज्यां
तारा नथी त्यां लक्ष्मी के स्त्री–पुत्रादि तो तारा क््यांथी थया? एना आववा–जवामां
हर्ष शो ने शोक शो? ए कांई तारुं नथी. तारुं तो ज्ञान छे. तुं तो ज्ञानमय छो. ज्ञानमय
आत्मानी भावना करतां तने परमआनंदस्वरूप परमात्मपदनी प्राप्ति थशे.